Slogan

No.101 सोऽहँ परमात्मा तो है ही नहीं विशुद्धता :आत्मा भी नहीं है यह तो पतनमुखी क्रिया है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.102 जब–जब सृष्टि के अधिकारीगण सृष्टि की व्यवस्था संभालने में असमर्थ होते हैं तब-तब परमप्रभु भूमंडल पर आते हैं जिन्हें अवतारी कहा जाता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.103 जिसको पैसा परिवार चाहिए उसको कभी परमेश्वर तथा उससे मिलने वाला लाभ नहीं मिल सकता l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.104 विद्यातत्त्वम पद्धति को जनाने–दिखाने वाला भगवदावतारी के सिवाय और कोई भी नहीं हो सकता l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.105 वेद का अर्थ पहले तो शुद्ध रूप से होता है जानना, जानकारी व्यापक रूप से समाहित हो जिसमें वह एक वेद सदग्रंथ है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.106 परमेश्वर को ज्योतिर्बिंदु रूप बताना अज्ञान भ्रम और जनमानस को भरमाना भटकाना है क्योंकि परमेश्वर ज्योतिर्मय शिव का भी उत्पत्ति व संचालन कर्ता होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.107 पाप–कुकर्म और झूठ–फरेब में अभ्यस्त व्यक्ति भोग–व्यसन की लालसा में परमेश्वर के क्षेत्र में ठहरने से कतराता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.108 सद्गुरु कभी भी किसी को भी परिवारिक भोग व्यसन की स्वीकृति नहीं देता क्योंकि वह मोक्ष (मुक्ति–अमरता) दाता होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.109 योग ही ज्ञान नहीं ॐ –सोऽहँ भगवान नहीं वास्तविक ज्ञान तत्त्वज्ञान है अलम गॉड ही खुदा गॉड भगवान है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.110 मानव जीवन का उद्देश्य गुरु खोजना पाना या गुरु भक्ति करना मात्र नहीं है खोजना पाना तो भगवान और मोक्ष है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.111 एक घड़ी, आध घड़ी का सत्संग संत सद्गुरु का संगत कोटि अपराधों को मिटाने वाला होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.112 खुदा–गॉड–भगवान कोई यंत्र–मंत्र–तंत्र तो है ही नहीं वह अहम् ब्रह्मास्मि भी नहीं है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.113 परमात्मा के संकल्प शक्ति से ब्रह्म शक्ति की उत्पत्ति होती है और ब्रह्म शक्ति से ॐ की उत्पत्ति होती है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.114 परमात्मा–परमेश्वर–खुदा–गॉड–भगवान को जो तत्त्वत: जानेगा–देखेगा वह तत्काल ही परमतत्त्वम में प्रवेश करता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.115 इंगला पिंगला और सुषुम्ना- तीनों प्रसिद्ध प्राप्त नाड़ियों का मिलन ही योगी महात्माओं के लिए संगम है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.116 जहां पर दो नदियां मिलकर तीसरा रूप लेकर बहती हैं तो वह मिलन स्थल ही संगम कहलाता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.117 संपूर्ण ब्रह्मांड के किसी भी विषय–वस्तु अथवा शक्ति सत्ता की संपूर्ण रहस्यत्मक जानकारी ज्ञान में समाहित होता है इसलिए संपूर्ण की रहस्यात्मक जानकारी कराने वाला केवल तत्त्वज्ञान दाता भगवदावतार ही होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.118 शरीर में स्थित जीव को तथा जीव के अपने असली पिता परमेश्वर को जाने देखें तथा उसके प्रति समर्पित–शरणागत हुए बगैर मुक्ति अमरता संभव ही नहीं है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.119 विद्यातत्त्वम या परमविद्या या तत्त्वज्ञान पद्धति एकमात्र परमात्मा के अवतार रूप अवतारी सत्पुरुष हेतु ही सुरक्षित रहता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.120 जो संपूर्ण मैं–मैं, तू–तू सहित सृष्टि के आदि अंत को जनाता–दिखाता है वास्तव में वही सच्चा संत होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.121 भौतिक संसाधन तो कभी भी मोक्ष का कारण नहीं हो सकता बल्कि संसार में फंसाने का मूल कारण है इसलिए गुरु की पहचान भौतिक संसाधन से नहीं करना चाहिए l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.122 लोहे की हथकड़ी तो खुल जाती है परंतु मोह–ममता वाली हथकड़ी बिना तत्त्वज्ञान के करोड़ों जन्मों तक खुलनी आसान नहीं है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.123 परमेश्वर की विशेष कृपा से ही अधम से अधम जीव भी महापुरुष, ऋषि, ब्रह्मऋषि बनकर सर्वोच्च यश–कीर्ति सहित मुक्ति–अमरता को भी पाता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.124 जप, तप, व्रत, नियम, उपवास, यज्ञ, तीर्थ, स्नान, दान, हवन, मूर्तिपूजा, सदग्रंथों के पाठ, योग तथा मुद्राओं आदि की साधना से मोक्ष नहीं मिलता मोक्ष तो एक मात्र तत्त्वज्ञान से ही प्राप्त होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.125 बार–बार के आवागमन के दु: सह यातना से छुटकारा पाने के लिए भगवद समर्पित–शरणागत होना रहना चलना अनिवार्य है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.126 खुदा–गॉड–भगवान यहोवा के पीछे रहने वाले लोग अलग–अलग संप्रदाय कायम नहीं कर सकते क्योंकि वह है ही एकमात्र एक ही l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.127 परमात्मा के जिज्ञासु को सदा ही आगे की सत्यता को अपनाते रहना चाहिए तभी वह परमात्मा तक पहुंच सकता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.128 परमात्मा–परमेश्वर–परमब्रह्म को कोई नहीं जान पाता जब तक कि वह खुद भूमंडल पर अवतरित होकर अपना परिचय पहचान न करावे l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.129 किसी भी विषय वस्तु से लाभ लेने के लिए उसके बारे में तीन चीजें जानना अनिवार्य है क्या है? क्यों है? और उसका उपयोग हम किस तरह करें कि उसका सही समुचित लाभ मिले ?

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.130 तत्त्वज्ञान भगवान का परिचय पहचान होता है इसलिए उसका दाता केवल परमात्मा ही होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.131 परिवारिक ममता मोह को ज्ञान रूपी तलवार से काटना और परम प्रभु से साटना ही सद्गुरु का एकमात्र कर्तव्य होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.132 ब्रह्मा–इंद्र–शंकर आदि लोकपाल भी परमात्मा–परमेश्वर–परमब्रह्म को नहीं जान पाते हैं l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.133 भगवत कृपा उसी पर होती है जो परमेश्वर के बिना रह नहीं सकता ऐसे ही जिज्ञासु पर वे कृपा करके अपना तत्त्वरूप प्रकट कर देते हैं l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.134 संत ज्ञानेश्वर जी के अनुसार दोष रहित, सत्य प्रधान, उन्मुक्तता, मुक्ति और अमरता से युक्त भरा–पूरा जीवन ही धर्म है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.135 सत्य सदा सर्वदा ही सर्वोच्च–सर्वश्रेष्ठ–सर्वोत्कृष्ट तथा एक रूप और अपरिवर्तनशील होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.136 यह अनमोल मानव शरीर परमेश्वर प्राप्ति के लिए ही परमेश्वर ने दी है अतः इसे भोग व्यसन में मत फसाओ l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.137 जीव का आत्मा से मिलना ही योग अध्यात्म कहलाता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.138 योग ही ज्ञान नहीं ॐ – सोऽहँ भी भगवान नहीं वास्तविक ज्ञान तत्त्वज्ञान है परमतत्त्वम रूप आत्मतत्त्वम ही सच्चा भगवान है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.139 परमेश्वर का स्मरण करने के लिए भी तो परमेश्वर को जानना देखना अनिवार्य है यदि परमेश्वर को जाने ही नहीं तो परमेश्वर का स्मरण कैसे करेंगे l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.140 हम शरीर नहीं बल्कि शरीर हमारी है हम तो शरीर रूपी गाड़ी का एक चालक मात्र हैं जो ईश्वर द्वारा परिचालित एवं परमेश्वर द्वारा संचालित है होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.141 शरीर से संसार तक मूलक या शरीर–संसार प्रधान गतिविधि को कर्म क्षेत्र कहते हैं तो जीव से परमात्मा तक परमात्मा प्रधान गतिविधि को धर्म क्षेत्र कहते हैं l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.142 सारे दुख सुख की अनुभूतियां हम जीव को ही होती हैं नरक की यातनाएं भी जीव को झेलना पड़ता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.143 जब आप पूर्णता अपने को भगवान को सौंप देंगे तो भगवान भी पूर्णता आपकी रक्षा व्यवस्था करेंगे l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.144 जीव के उद्धार और जीवन के सुधार का सर्वोत्तम विधान ही वास्तव में सच्चा धर्म है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.145 धर्म–अर्थ–काम और मोक्ष के बीच अपने जीवन को रखा है उसी को पुरुषार्थी कहते हैं l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.146 विज्ञान अंतिम सीमा चरम तक जाकर के जहां समाप्त होता है वहां से अध्यात्म शुरू होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.147 यदि आप ज्ञान का लाभ प्राप्त करना चाहते हैं तो ईमान–सच्चाई–संयम–सेवा अपनाना परम आवश्यक है इन चारों के बिना ज्ञान का लाभ असंभव है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.148 अभ्यांतर कुंभक शक्ति को ही संगठित रूप स्थिरता प्रदान करने वाली क्रिया प्रक्रिया है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.149 भोगी–व्यसनी–अज्ञानी मूढ़ हैं लोग जो तत्त्वज्ञानदाता सदगुरु को साधारण मनुष्य समझते हैं, ज्ञानी–वैरागीजन तो परम ब्रह्म परमेश्वर के साक्षात पूर्ण अवतार के रूप में उन्हें जानते और देखते हैं l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.150 समर्पण का मतलब परमात्मा परमेश्वर को कुछ देना नहीं होता है अपने बल्कि परमात्मा परमेश्वर का बनकर संपूर्ण का संपूर्णतया पाना होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.151 परमेश्वर ज्योतियों का भी पिता है क्योंकि संपूर्ण ज्योतियां उसी से प्रकट और उसी में विलय हुआ करती हैं l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.152 नार–पूरइन काटने के पश्चात शिशु को माता–पिता आदि द्वारा वाह्य आडंबर में फंसाकर अंतर्मुखी से बहिर्मुखी बना दिया जाता है यह शिशु के प्रति सबसे बड़ा घात है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.153 भोगी व्यसनी का विनाश हो जाता है और ज्ञानी प्रभु सेवक यश कीर्ति और मोक्ष भी पाता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.154 सत्य पुरुषत्व (मुक्ति–अमरता) को पाने में एकमात्र परिवार ही बाधक और विनाशक होता है किसे अपनाएं और न अपनाएं यह आप पर है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.155 महापुरुष–सत्पुरुष बनने होने में कामिनी कांचन (शरीर, वस्तु) बाधक होता है जबकि साहस, निष्ठा एवं समर्पण– शरणागति सहायक होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.156 परमेश्वर संपूर्ण ब्रह्मांड से बाहर होता है इसलिए परमेश्वर के यहां काल और कर्म नहीं होता है काल कर्म तो माया के क्षेत्र में होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.157 कोई भी क्या है और कितने में था या है इसकी साक्षात जानकारी देने वाला ज्ञान ही तो तत्वज्ञान है जो एकमात्र भगवद अवतारी सद्गुरु से ही प्राप्त होता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.158 जीव, ईश्वर व परमेश्वर के भेद को न जानने वाले तीनों को एक ही या दो ही बताते हैं यह उनकी घोर अज्ञानता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.159 तत्त्वज्ञान दाता सद्गुरु अपने शिष्य को विज्ञान सहित तत्वज्ञान को संपूर्णता सहित देता है फिर जानना और पाना कुछ भी शेष नहीं रह जाता l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.160 कर्म का लक्ष्य भोग, योग का लक्ष्य ब्रह्ममय समाधि अवस्था है और धर्म का लक्ष्य मोक्ष परमधाम है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.161 परमेश्वर के शरणागत हो करके अपने मानव जीवन को सफल बनाइए l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.162 नमक से लेकर के अमरलोक तक की पूर्ति (गारंटी) देने वाला एकमेव एक परमेश्वर ही है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.163 सोऽहँ तो अहंकार बढ़ाने और पतन को ले जाने वाली एक सहज स्थिति ही है यह जब आत्मा ही नहीं है तो फिर परमात्मा कैसा?

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.164 विद्यातत्त्वम पद्धति विद्यार्थी को भोग( जुटाना–खाना–पखाना) नहीं बल्कि जीव को मोक्ष (मुक्ति–अमरता) और जीवन को यश–कीर्ति देता है l

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.165 यदि आपने परमतत्त्व को जाना नहीं तो सारा शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है यदि आपने उस परमतत्त्व को जान लिया तो भी शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.166 संसार, शरीर व जीव तो अनादि है ही नहीं आत्मा भी अनादि नहीं है अनादि तो एकमात्र परमात्मा ही है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.167 संसार के विषय वस्तुओं से वैराग्य और प्रभु चरणों में अनन्य प्रेम अनुराग |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.168 युवा बंधुओं अपना समय मत गवाओ को अपने को महापुरुष बनाओ साथ ही साथ अपने माता-पिता के उद्धार तथा कल्याण का माध्यम बनो |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.169 पतित पावन उद्धारक केवल परमात्मा परमेश्वर भगवान का अवतार होता है जिसके शरण में आने वालो को वह संपूर्ण पाप भव के बंधन काटकर मुक्ति अमरता देता है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.170 कुरान की आयतों को जानने समझने के लिए जिस्मानी चश्मा रूहानी चश्मा नूरानी चश्मा और मेहरबानी चश्मा चाहिए |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.171 संशय से युक्त श्रद्धा से रहित पुरुष के लिए ना लोक का ही सुख है ना परलोक का ही जो जन्म मृत्यु रूप संसार चक्र में भ्रमण करता रहता है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.172 गायत्री कोई देवी तो है ही नहीं कोई मंत्र भी नहीं बल्कि मात्र एक छंद है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.173 जीवात्मा और परमात्मा दोनों एकदम प्रथक प्रथक हैं परमात्मा सभी जीवात्मा को कर्म और भोग के अनुसार सृष्टि चक्र में घुमाता नचाता है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.174 संसार - शरीर प्रधान रहो पशु बनो, जीव प्रधान रहो पुरुष बनो, आत्मा प्रधान रहो महापुरुष बनो, परमात्मा परमेश्वर प्रधान रहो सत्पुरुष बनो |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.175 भगवदावतार की विद्यातत्त्वम पद्धति से ही समाज का सर्वांगीण विकास संभव है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.176 वर्तमान के उद्देश विहीन शिक्षा ने मानव जीवन को विकृत कर दिया है वर्तमान के शिक्षा में परिवर्तन करके विद्यातत्त्वम पद्धति अनिवार्य है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.177 संसार, शरीर, जीव, ईश्वर और परमेश्वर पांचों की यथार्थता ठीक-ठीक परिचय पहचान जिससे प्राप्त होता है उसे ही सद्गुरु कहते हैं |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.178 अध्यात्म में इतनी क्षमता सामर्थ नहीं है कि वह परमेश्वरीय रहस्यों को दिखा या बता जना ही सके |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.179 गुरु और गुरु भक्ति का अभीष्ट भगवत प्राप्ति और मुक्ति अमरता का बोध रूप अद्वैत तत्व बोध के लिए मात्र ही होनी चाहिए ना कि इससे बिछड़े रहने के लिए |

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No.180 जीवन का चरम और परम लक्ष्य रूप मुक्ति अमरता के साक्षात बोध को प्राप्त करते हुए अपने जीवन को सफल सार्थक बना लेना ही है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.181 तत्वज्ञान या विद्यातत्त्वम ना तो कर्मकांड ही होता है और ना योग साधना वाला अध्यात्म ही बल्कि दोनों का ही उत्पत्तिकर्ता संचालनकर्ता विलय रूप नियंत्रण कर्ता के साथ ही साथ सभी के कमियों का पूरक होता है |

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No.182 कर्म कांडी व्यक्ति और वस्तु या शरीर और संपत्ति प्रधान होते हैं जो जड़ तथा नाशवान होते हुए वस्तुतः अस्तित्व हीन होता है |

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No.183 इंद्रियों और विषयों की जानकारी करते हुए उसके गुण दोष क्या उसके प्रभाव को यथार्थता समझ ले तो ना ही विषय का भय ही होता और ना ही इंद्रियों पर रोक लगाने की आवश्यकता ही पड़ती है |

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No.184 जिस प्रकार जीव के बगैर शरीर का कोई अस्तित्व और महत्व नहीं रहता है ठीक उसी प्रकार आत्मा के बगैर जीव का भी अस्तित्व और महत्त्व समाप्त हो जाता है |

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No.185 परमेश्वर के यहां सुपर कंप्यूटर से भी आगे सुप्रीम कंप्यूटर होता है |

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No.186 जनेऊ यानी जनाने वाला जिसको देखने मात्र से लोग जान जाएं की ये ब्रह्मचारी है |

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No.187 वीरासन यदि भोजन के पश्चात किया जाए तो पेट संबंधी गड़बड़ी होता तो है ही नहीं यदि पहले से होगा भी तो दूर होते देर नहीं लगेगा |

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No.188 आसन शारीरिक गठन मात्र के लिए ही नहीं अपितु योग साधना की एक अनिवार्य कड़ी है |

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No.189 मनुष्य योनि के अतिरिक्त सभी योनियों को मात्र कार्यकारी शक्ति उपलब्ध हुई है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.190 अपने अस्तित्व कर्तव्य और मंजिल को जाने बिना मानव जीवन उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार बिना दूध के गाय को पालना |

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No.191 अध्यात्म या योग के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित नारद, ब्रह्मा और शंकर जी आदि को भी भगवान विष्णु, राम और कृष्ण की भक्ति करनी पड़ती है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.192 समाज सुधार एवं समाज उद्धार हेतु विद्यातत्त्वम की मात्र उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि शरीर को क्रियाशील होने हेतु जीवात्मा की |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.193 पुरातत्व विभाग को विद्यातत्त्वम का पर्याय मानना जड़ता एवं मूढ़ता के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.194 भगवान का कृपा पात्र जो भगवान को तथा उनके प्रभाव को तत्त्वत: जान लेता है वास्तव में वह भी भगवदमय ही हो जाएगा |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.195 भगवान की विचित्र लीला को खुद भगवान के सिवाय और कोई नहीं जानता |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.196 भगवदावतार के सिवाय यथार्थता भगवान को जानता ही कौन है कि भगवान के संबंध में सत्संग करेगा ?

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.197 धर्म उन्मुक्तता अमरता से युक्त एक अनिवार्य सच्चा जीवन विधान सर्वोत्तम जीवन विधान होता है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.198 हम संसार हैं कि शरीर हैं कि जीव है कि ईश्वर हैं कि शिव हैं कि भगवान हैं सबसे पहले आप हम सब की आवश्यकता है यह जानने की आखिर इसमें हम क्या हैं?

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.199 भक्ति सेवा पूजा आराधना का एकमात्र अधिकारी भगवत अवतार सद्गुरु ही है जो परमतत्व का साक्षात्कार कराता है |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी


No.200 युवा बंधुओं आगे आओ अपने को सतपुरुष बनाओ धरती धर्म के रक्षा हेतु अब सत्य धर्म ही अपनाओ |

BY: संत ज्ञानेश्वर जी