सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! शिक्षा प्रणाली आज की इतनी गिरी हुई एवं ऊल-जलूल है कि आज शिक्षा क्या दी जानी चाहिए ? और शिक्षा क्या दी जा रही है यह तो ऐसा लग रहा है कि शिक्षार्थी तो शिक्षार्थी ही है, यदि शिक्षक महानुभावों से भी पूछा जाय, तो वे महानुभाव भी पूरब के वजाय पश्चिम और उत्तर के वजाय दक्षिण की बात बताने-जनाने लगेंगे। इसमें उनका भी दोष कैसे दिया जाय, क्योंकि जो जैसे पढ़ेगे-जानेंगे, वे वैसे ही तो पढ़ायेंगे-जनायेंगे भी । इसमें उनका दोष देना भी व्यर्थ की बात दिखलाई देती है । दोष तो इस शिक्षा पध्दति के लागू करने-कराने वाली व्यवस्था रूप सरकार को ही देना चाहिए । परन्तु वह भी तो इसी शिक्षा से गुजरे हुये व यही शिक्षा पाये हुये लोगों से बनी एक व्यवस्था है । यह बात भी सही ही है कि शिक्षा प्रणाली ही दोषपूर्ण है । यह आभाष तो प्राय: सभी को ही हो रहा है । प्राय: सभी अपने-अपने क्षमता भर आवाज भी उठा रहे है। सभी यह कहते हुये सुनाई दे रहे हैं कि शिक्षा का आमूल परिवर्तन होना चाहिए परन्तु वर्तमान शिक्षा को समाप्त कर दिया जाय क्योंकि वर्तमान शिक्षा पध्दति वही (आसुरी) कामिनी-कांचन प्रधान है जिसे हिरण्य कश्यप (पिता) के सभी प्रयासों के बावजूद भी प्रहलाद ने नहीं पढ़ा था तो उसके स्थान पर नई कौन सी अथवा कैसी शिक्षा पध्दति हो या होना चाहिए, यह बात या सिध्दान्त या फार्मूला कोई नहीं दे रहा है कि शिक्षा में यह बात या यह विधि-विधान या ऐसी प्रणाली लागू किया जाय । इसी समस्या के समाधान में निम्नलिखित 'शिक्षा पध्दति' प्रस्तुत किया जा रहा है ।
'शिक्षा' पूर्णत: ब्रम्हाण्डीय
विधि-विधान पर ही आधारित हो
भगवत् कृपा विशेष से प्राप्त सदानन्द का 'मत' तो यह है कि--
"शिक्षा पिण्ड और ब्रम्हाण्ड में आपसी ताल-मेल बनाये रखने वाली होनी चाहिए !"
वास्तव में जब तक पिण्ड और ब्रम्हाण्ड के तुलनात्मक अध्ययन के साथ उसमें आपस में तालमेल बनाये रखने हेतु पृथक्-पृथक् पिण्ड और ब्रम्हाण्ड की यथार्थत: प्रायौगिक और व्यावहारिक जानकारी तथा ब्रम्हाण्डीय विधान मात्र ही पिण्ड का भी विधि-विधान यानी स्थायी एवं निश्चयात्मक विधि-विधान ही नहीं होगा तथा एक मात्र ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान को अध्ययन पध्दति या शिक्षा प्रणाली के रूप में लागू नहीं किया जायेगा, तब तक अभाव एवं अव्यवस्था दूर नहीं किया जा सकता है, कदापि दूर हो ही नहीं सकता ।
'यह भगवद् वाणी ही है !'
सियार की तरह से हुऑं-हुऑं-हुऑं तथा कुत्तों की तरह से भौं-भौं-भौं से काम धाम नहीं चलने को है। अभाव एवं अव्यवस्था तब तक दूर नहीं हो सकती । जब तक कि ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान को ही पिण्डीय विधि-विधान रूप में शिक्षा विधान को स्वीकार नहीं कर लिया जायेगा । 'शिक्षा को ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान अपनाना ही होगा, चाहे जैसे भी हो।' सब भगवत् कृपा पर आधारित ।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! यहाँ पर चारों क्षेत्रों में अपने-अपने क्षेत्र में सफल जीवन हेतु अपनी-अपनी जानकारी से सम्बन्धित तय या निश्चित किये हुये विधान के अनुसार ही रहना-चलना चाहिए । शारीरिक और सांसारिक विषय-वस्तुओं को सही-सही समझने हेतु सही जानकारी आवश्यक होता है और सही जानकारी के लिए, सांसारिक जानकारी व पहचान के लिए, शिक्षित होना पड़ेगा। यहाँ 'शिक्षित' शब्द से मतलब है शैक्षिक दृष्टि से युक्त होना । अपनी स्थूल दृष्टि के बावजूद भी शिक्षा भी एक दृष्टि ही होती है, जो एक प्रकार से शारीरिक ऑंख के साथ ही साथ शिक्षा दृष्टि भी कायम हो जाती है, जिससे पत्र-पत्रिकाओं, ग्रन्थ-सद्ग्रन्थ आदि के माध्यम से एक जानकारी मिलती है, जो भविष्य-जीवन हेतु उत्प्रेरण एवं पथ प्रदर्शन का कार्य करती है ।
नाम और रूप
अब यहाँ पर यह जाना-देखा जायेगा कि हर क्षेत्र में ही लक्ष्य कार्य हेतु जानकारी मुख्यत: दो माध्यमों से होता है । वे हैं-- 'नाम' और 'रूप'। नाम को शब्द के माधयम से कह-सुनकर तथा रूप को देखकर ही जान-पहचान की प्रक्रिया पूरी होती है । संसार में चाहे जितने भी विषय-वस्तु है, सभी 'नाम-रूप' दोनों से ही अवश्य ही युक्त होते हैं । हालांकि स्पर्श, स्वाद और गन्ध भी जानने-पहचानने में सहयोगी होता हैं, परन्तु मुख्यत: 'नाम-रूप' ही होता है । मगर एक बात याद रहे कि कोई भी भौतिक विधान खुदा-गॉड-भगवान् और भगवद् विधान पर लागू नहीं हो सकता ।
सांसारिकता के समान ही शारीरिक जानकारी व परिचय-पहचान भी 'नाम-रूप' से ही होता है । कोई ऐसा सांसारिक प्राणी नहीं होगा, जो 'नाम-रूप' से रहित हो। यही कारण है कि जान-पहचान 'नाम-रूप' मुख्यत: दो के माध्यम से ही होता है । जिस प्रकार शरीर का 'नाम-रूप' होता है । वास्तव में उसी प्रकार जीव का भी इससे पृथक् अपना 'नाम-रूप' होता है । नाम से जानकारी मिलता है तथा रूप से पहचान प्राप्त होता है। जीव को जानने और पहचानने, दोनों से ही युक्त जो विधि-विधान है, वही 'स्वाध्याय' (Self-Realization) है । 'स्वाध्याय' से तात्पर्य 'स्व' के अधययन यानी जानकारी व पहचान से है। इसमें श्रवण, मनन-चिन्तन और निदिध्यासन की क्रिया प्रमुखतया आती या होती है । निदिध्यासन के अन्तर्गत जीव शरीर से बाहर निकल कर क्रियाशील रूप में स्पष्टत: दिखलाई देता है। निदिध्यासन के वगैर अन्य किसी भी पध्दति से जीव का स्पष्टत: दर्शन सम्भव नहीं है । हालाँकि सूक्ष्म दृष्टि के माध्यम से स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर रूप जीव दोनों को अर्थात् दोनों की जानकारी को पकड़ा जाता है। जब भी हमको शरीर से पृथक् सूक्ष्म शरीर रूप जीव का दर्शन होगा, तो अपने को दिखलाई देगा कि हम निदिध्यासन के अन्तर्गत ही हैं और स्वाधयाय से ही हम जीव भाव या 'स्व' रूपमय स्थित भी रह सकते हैं । इसमें इन्द्रियॉ सहायक नहीं होती हैं। इन्द्रियाँ तो पाँच ज्ञान यानी जानकारी करने-कराने वाली तथा पाँच कर्म यानी जानकारी के अनुसार कार्य करने वाली प्राय: प्रत्येक मानव को ही प्राप्त होती हैं ।
सारी सृष्टि ही पाँच पदार्थ-तत्वों से बनी है जो क्रमश: आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल नाम से जानी जाती हैं । चूँकि सृष्टि की प्राय: सभी जड़वत् वस्तुएँ इन्हीं पाँच पदार्थ तत्वों से बनी हुई हैं तो जिसमें जिस पदार्थ तत्व की प्रधानता होती है, उसे उसी विभाग के माध्यम से अच्छी जानकारी और पहचान मिलती है । किसी दूसरे पदार्थ तत्त्व प्रधान को दुसरे विभाग से अच्छी या ठोस व सही-सही जानकारी व पहचान नहीं मिल सकती है । वे पाँच विभाग पाँचों पदार्थ तत्वों के आधार पर ही बने हैं, जो अपने विधान के अनुसार समान रूप से आदि सृष्टि से ही गतिशील होते आ रहे हैं ।
1-आकाश तत्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE SKY)
यह आकाशतत्व स्थूल सृष्टि रचनाक्रम में पहले स्थान पर आता है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अन्य पदार्थों की तरह सामान्यत: यह उत्पन्न और नष्ट नहीं होता-रहता है, बल्कि जैसे इसका 'महत्तत्व' शक्ति से उत्पत्ति होता है वैसे महाप्रलय के समय ही 'महत्तात्व' शक्ति में ही विलीन भी हो जाया करता है। आकाश तत्व विभाग के अन्तर्गत आकाश तथा आकाश से सम्बन्धित वे सारी वस्तुएँ, उनकी जानकारी व पहचान तथा उनके आवश्यकतानुसार प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी बातें होती-रहती हैं । आकाश का सूक्ष्म विषय 'शब्द' है, यानी 'शब्द' के माध्यम से ही आकाश तथा आकाश तत्व प्रधान वस्तुओं की जानकारी प्राप्त होती है। आकाश पदार्थ तत्व प्रथम व एक इकाई वाला होने के कारण, वह अन्य किसी भी विभाग से जाना-समझा-पहचाना नहीं जा सकता है । इसकी सही-सही जानकारी एक मात्र 'शब्द' से ही हो सकती है, अन्यथा नहीं । इसमें स्पर्श, रूप, रस या स्वाद तथा गन्ध नाम की कोई बात नहीं होती या रहती है । इसलिए कि उनकी इसमें पहुँच नहीं है । यह उन सभी से अति सूक्ष्म होता है । कान और वाणी ही आकाश तत्व की क्रमश: ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेंन्द्रिय हैं । इसकी सारी जानकारियाँ और क्रियाकलाप आदि सब कुछ ही 'शब्द' एकमात्र 'शब्द' के द्वारा ही होता हैं क्योंकि आकाश तत्त्व की तनमात्रा शब्द ही है । कान जानकारियों को ग्रहण (प्राप्त) करता-रहता है और वाणी जानकारियाँ प्रकट और प्रेषित करती रहती है ।
2-वायु तत्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE AIR)
यह स्थूल सृष्टि रचनाक्रम में दूसरे स्थान पर आता है । अर्थात् सृष्टि रचनाक्रम में पहला आकाश तत्पश्चात् आकाश के अन्तर्गत ही वायु तत्व की रचना या उत्पत्ति की गयी या हुई । वायु तत्व विभाग आकाश तत्व विभाग के अन्तर्गत व अधीन ही रहता हुआ अपने सूक्ष्म विषय 'स्पर्श' के माध्यम से ही वायु प्रधान विषय-वस्तुओं की जानकारी व पहचान तथा उसके आवश्यकतानुसार प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी बातें होती-रहती हैं । वायु तत्व दो इकाइयों से बना होता है, जिसमें एक इकाई आकाश भी उसमें समाहित रहता है । इसलिए वायु तत्व तथा वायु प्रधान विषय वस्तुओं पर गौण रूप से आकाश तत्व विभाग की दृष्टि भी रहती है । यहाँ गौण कहने से तात्पर्य यह है कि वायु तत्व विभाग का अपने लक्ष्य कार्य सम्पादन में यह विरोध व बाधा न उत्पन्न करके बल्कि उसे बढ़ोत्तारी और सहयोग करने हेतु ही होता है । वायु तत्व विभाग से सम्बन्धित विषय-वस्तुओं की जानकारी के लिए शरीर में त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय तथा हस्त (हाथ) नामक कर्मेन्द्रिय की रचना या उत्पत्तिा हुई । यानी वायु तत्व प्रधान जानकारी 'स्पर्श' के माध्यम से 'त्वचा' करेगी तथा उसके पश्चात् आवश्यकतानुसार उसके सहयोगी रूप कर्मेन्द्रिय उसका कार्य करेगी । ज्ञानेन्द्रिय प्रधाान और कर्मेन्द्रिय सहायक के रूप में पद स्थापित होते हैं जिसके अनुसार अपना लक्ष्य कार्य सम्पादन करते हैं। वायु तथा वायु तत्व विभाग के विषय-वस्तु को जानने-समझने में शब्द भी सहयोग कर सकता है परन्तु स्पष्टत: पहचान इसका स्पर्श से ही होता है क्योंकि वायुतत्त्व की तनमात्रा स्पर्श ही होता है। रूप, रस या स्वाद एवं गन्ध की पहुँच स्पर्श में नहीं होती है क्योंकि स्पर्श इन तीनों से ही अति सूक्ष्म होता है यानी सूक्ष्मताक्रम में 'स्पर्श' के पहले 'शब्द' ही आता है । रूप-रस-गन्ध तो पश्चात् के पदार्थ तत्वों में होता है ।
3-अग्नि तत्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE FIRE)
अग्नि तत्त्व विभाग के अन्तर्गत अग्नि तथा अग्नि से सम्बन्धित वे सारी विषय-वस्तुयें, उनकी जानकारी व पहचान तथा उसके आवश्यकतानुसार प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी समस्त बातें ही होती-रहती हैं । अग्नि तत्व का सूक्ष्म विषय 'रूप' है, यानी रूप के माध्यम से ही अग्नि तत्व तथा उससे सम्बन्धित विषय-वस्तुओं की जानकारी व पहचान होता है । हालाँकि अग्नि तत्व तीन इकाइयों से बना होता है- शक्ति, आकाश और वायु ही तीन मिलकर अग्नि तत्व की रचना या उत्पत्तिा करते या होते हैं-- जैसे कि वायु दो इकाइयों 'शक्ति-आकाश' तथा आकाश केवल एक इकाई 'शक्ति' द्वारा ही रचित या उत्पन्न हुआ, जबकि अग्नि में 'शक्ति-आकाश-वायु' तीनों ही समाहित होते हैं । इसलिए इन तीनों की अधीनता क्रमश: शक्ति के अधाीन आकाश तत्व विभाग, शक्ति और आकाश तत्व विभाग के अधीन वायु तत्व विभाग तथा शक्ति-आकाश व वायु तत्व विभाग के अधीन अग्नि तत्व विभाग गतिशील होता-रहता है । इसका तात्पर्य यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वे सब शक्ति-आकाश-वायु अग्नि तत्व विभाग के लक्ष्य कार्य सम्पादन में बाधा डालेंगे । बाधाा नहीं अपितु सहयोग ही करते रहते हैं । अग्नि तत्व विभाग अपना लक्ष्य कार्य-सम्पादन 'रूप' के माध्यम से ही करता है । परमेश्वर-प्रकृति की व्यवस्था में विरोध-संघर्ष का नहीं अपितु सहयोग का महत्त्व होता है ।
शक्ति जब स्वच्छन्द थी, तो उसका प्रभाव गोपनीय था परन्तु क्रमश: रूप बदलते क्रम में प्रभाव का आभाष आसान होता गया, जो शब्द के माधयम से उत्प्रेरण, स्पर्श के माध्यम से बल तथा रूप के माधयम से अग्नि का प्रभाव भी दिखाई देने के रूप में होने लगा यानी यह हुआ प्रभाव जो क्रमश: होता है । अग्नि तत्व विभाग रूप और तेज के माघ्यम से ही अपने कार्य का सम्पादन करता है, हालाँकि इसका प्रधान कार्य तो 'रूप' ही के माध्यम से होता है । परन्तु जहाँ यह होता है, क्षमतानुसार उसका प्रभाव तेज रहता ही है क्योंकि तेज के वगैर रूप हो ही नहीं सकता ।
आजकल के जढ़ी, मूढ़ एंव अज्ञान रूपी पर्दा से ज्ञान नेत्र बन्द होने के कारण अन्धे वैज्ञानिक जन यह घोषित कर करा रहे हैं कि शक्ति-विद्युत या उर्जा को देखा ही नहीं जा सकता । तो इन जढ़ी-मूढ़ों तथा अन्धों को कौन समझाये कि एकमात्र शक्ति-विद्युत-ऊर्जा ही तो देखा जाता है। अग्नि का रूप प्रकाश या ज्योति ही है । अग्नि 'रूप' में आते-आते वह शक्ति मानव के सीधे जानकारी रूप (प्रकाश रूप) दिखायी देने रूप में प्रकाशित या प्रकट हो जाया करती है ।
अग्नि तथा अग्नि तत्व से सम्बन्धित जानकारी में रस एवं गन्ध का प्रवेश नहीं हो पाता क्योंकि रस एवं गन्ध से 'रूप' सूक्ष्म होता है । हाँ, शब्द और स्पर्श अवश्य उसमें समाहित है। ये सहयोगी हैं अग्नि तत्व विभाग के, जिसके लक्ष्य कार्य-सम्पादन हेतु शरीर में ज्ञानेन्द्रिय रूप में चक्षु-ऑंख और सहायक रूप में पैर नाम-रूप वाला कर्मेन्द्रिय मिला है, जो अपने आवश्यकतानुसार गतिशील होता रहता है।
4 . जल तत्त्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE WATER)
जल तत्व विभाग के अन्तर्गत वे सारी विषय-वस्तुयें, उसकी जानकारी व पहचान तथा उसके आवश्यकतानुसार प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी समस्त बातें ही आती हैं जो जल तथा जल से सम्बन्धित होता रहता हैं । जल तत्व का सूक्ष्म विषय 'रस' है यानी रस के माध्यम से ही जल तथा जल तत्व प्रधाान विषय-वस्तुओं की जानकारी व पहचान होती है । हालाँकि जल तत्व की रचना या उत्पत्ति चार इकाइयों शक्ति-आकाश-वायु-अग्नि द्वारा होती है । इसीलिए चारों का भी प्रभाव-शब्द-स्पर्श-रूप आदि अपने मूल सूक्ष्म विषय के माध्यम से 'रस' यानी जल तत्व में समाहित होते हैं अर्थात् शक्ति के अधीन आकाश, शक्ति और आकाश के अधीन वायु, शक्ति-आकाश और वायु के अधीन अग्नि, शक्ति-आकाश-वायु और अग्नि के अधीन व अन्तर्गत जल तत्व विभाग गतिशील होता है । इसीलिए जल में क्रमश: प्रभाव-शब्द-स्पर्श-रूप भी समाहित रहता है यानी जल के पहचान में क्रमश: ये चारों ही 'रस' का सहयोग करते हैं । जल तत्व 'रस' के माध्यम से ही अपना लक्ष्य कार्य का सम्पादन करता है ।
जल तत्व का प्रभाव होता है द्रव, मुलायम या विनम्रता और इसके उत्पत्ति का कारण है-- सृष्टि के आदि में परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप परमसत्ताा-शक्ति था। वह परमसत्ता रूप परमात्मा अपने प्रभाव को अपने अन्तर्गत ही समाहित करके परम आकाश रूप परमधाम रूप अमरलोक में मुक्त और अमर रूप में सर्वशक्ति-सत्ताा सामर्थ्य युक्त सच्चिदानन्द (सत्-चित्-आनन्द) रूप शाश्वत् शान्ति और शाश्वत् आनन्द रूप 'सदानन्दमय' रूप में था, है और रहने वाला भी है। जब सृष्टि रचना की बात उनके अन्दर उठी तब वे ही अपने संकल्प से आदि-शक्ति रूपा अपने 'प्रभा' को प्रकट किया तथा वे इस आदिशक्ति को ऐश्वर्र्य के रूप में चेतन-जड़ दो रूपों तथा गुण-दोष दो प्रवृत्तिायों से युक्त करते हुए सृष्टि रचना का आदेश दिया । तब उस आदि-शक्ति ने सृष्टि रचना रूप अपने लक्ष्य कार्य के सम्पादन हेतु उत्पत्ति या रचना आरम्भ की, जिसे क्रमश: आप देखते आ रहे हैं-- शक्ति-आकाश-वायु-अग्नि-जल तत्व रूप में ।
आदि में जब मात्र परमसत्ता-शक्ति (परमात्मा) ही थे, तब तो प्रभाव ही प्रभाव था । तत्पश्चात् परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप शब्द-ब्रम्ह रूप परमब्रम्ह परमेश्वर या परमात्मा ने अपने में से ही 'आत्म' शब्द को ज्योति रूपा शक्ति तथा उसको 'प्रभा' से युक्त करते हुए प्रकट करते हुए पृथक् कर दिये, जिससे ज्योतिरूपा शक्ति भी पृथक् हो अपने सूक्ष्म विषय 'प्रभा' के माध्यम से आकाश की उत्पत्तिा की। परमप्रभु से प्रकट 'आत्म' शब्द का ही अंश रूप 'हँ' प्रकट हुआ, जिससे 'ह्-' हुआ। आदि-शक्ति 'प्रभा' परमप्रभु से उत्पन्न तथा उन्हीं से प्रभावित रही। इस आदि-शक्ति 'प्रभा' से अपने सहज 'भाव' से 'हूँ' कार उत्पन्न होने से नाम प्रभाव पड़ा। यह इतना ज्यादा या अत्यधिक मात्रा में उत्पन्न हुआ कि उसे आसानी से काबू यानी वश में नहीं किया जा सकता था। तब तुरन्त आदि-शक्ति 'प्रभा' ने 'हूँ' को विभाजित करके दो भाग कर दिया जिससे 'ह्-' दो रूपों में पृथक्-पृथक् हो गये । 'ह्' प्रभा से तेज प्राप्त करते ही और के अलग होते हुये 'ह्' सूक्ष्म रूप से स्थूल रूप में आकाश का रूप लिया। जिसमें 'ह्' प्र्रेरित होकर व्यापक रूप आकाशवत् हो गया और उससे शक्ति के प्रभाव से सृष्टि उत्पन्न हुई तथा प्रेरित होकर देवत्व को उत्पन्न किया और शक्ति की प्रेरणा व सहयोग से ही सृष्टि रचना क्रम से वायु-अग्नि-जल रूपों को अपने अधीन उत्पन्न करता-होता हुआ आगे बढ़ता रहा।
शब्द सूक्ष्म विषय रूप आकाश में तो अभी शक्ति का 'प्रभाव' प्रकट हुआ, परन्तु वह 'बल' रूप में महसूस हुआ था-- प्रभाव का खुल्लम खुल्ला प्राकटय नहीं हुआ था। अग्नि तत्व के माध्यम से उसका रूप भी भौतिक रूप में प्रकट हो गया जिसमें इतना अधिक तेज था कि उस तेज को प्रयोग-उपयोग में लाने के लिये जल तत्व की उत्पत्तिा की गई या हुई ताकि तेज को ठण्डा, मुलायम या द्रवित करता हुआ आवश्यकतानुसार उपयोगी बनाया जा सके। जल के वगैर उसका तेज कम हो ही नहीं रहा था। सर्वथा ही ऊपर बढ़ते ही रहने की प्रवृति या गतिविधि रहती, तो सर्वथा नीचे की ओर चलने वाले जल ने अग्नि के प्रभाव को कुछ सीमित किया अर्थात् रूप से व्यापक और बड़ा 'अंहकार' तब उसके अधीन बल और बल के अधीन तेज तथा तेज के अधीन जल हुआ, जो अपने द्रवित गुण रस से प्रभावित कर उपयोग के योग्य बनाया । इस कारण जल तत्व की उत्पत्तिा इस प्रकार हुई । जल तथा जल से सम्बन्धित विषयों की जानकारी हेतु 'रस' के लिये ज्ञानेन्द्रिय रूप में जिह्ना नाम से शरीर में स्थान पाई तथा इसके सहयोग में सहायक का कार्य करती-रहती है उपस्थेन्द्रिय पेशाबद्वार ।
5. थल तत्व विभाग (ORIGIN AND POSITION OF THE EARTH)
थल तत्व विभाग के अन्तर्गत वे सारी वस्तुयें आती हैं तथा उनसे सम्बन्धित सारे विषय उसकी जानकारी एवं पहचान तथा उसके प्रयोग-उपयोग सम्बन्धी सारी बातें आती है, जो थल तथा थल से सम्बन्धित होती रहती हैं । थल तत्व का सूक्ष्म विषय गन्धा है यानी थल तथा थल तत्व प्रधान विषय वस्तुओं की मुख्यत: जानकारी व पहचान गन्ध के माधयम से ही होता है, हालाँकि शक्ति-आकाश-वायु-अग्नि-जल आदि पाँचों इकाइयाँ मिलकर ही आपसी मेल मिलाप से थल तत्व की रचना या उत्तपत्ति करती हैं या होती हैं, जिससे कि इन पाँचों के अपने सूक्ष्म विषय रूप प्रभाव-शब्द-स्पर्श-रूप-रस भी इस थल तत्व तथा इसके सूक्ष्म विषय रूप गन्ध में समाहित रहते हैं । इसलिये थल तथा थल तत्व सम्बन्धी विषय-वस्तुओं की सही जानकारी एवं पहचान तथा प्रयोग-उपयोग में काफी सहायक होते हैं परन्तु प्रधाानतया कार्य जान-पहचान का यह 'गन्धा' ही करता-कराता या गन्ध ही के माध्यम से होता है । थल तत्व विभाग गन्ध के माधयम से ही अपना लक्ष्य कार्य सम्पादन करता-कराता है तथा शेष अन्य प्रभाव शब्द-स्पर्श-रूप-रस आदि भी अपने-अपने अंश तक इसका सहयोग करते हैं ।
शरीर के अन्तर्गत थल-तत्व सम्बन्धी विषय-वस्तुओं की यथार्थत: जानकारी व पहचान तथा प्रयोग एवं उपयोग हेतु और थल तत्व विभाग से सम्पर्क बनाये रखने हेतु 'नाक' (घ्राणेन्द्रिय) या नासिका नाम ज्ञानेन्द्रिय तथा इसके सहयोग या सहायक रूप में 'गुदा' (मल द्वार) नाम कर्मेन्द्रिय अपना स्थान स्थापित किये । अत: नासिका गन्धा लेने तथा गुदा दुर्गन्ध विशेष या दुर्गन्ध (मल) त्याग का कार्य करता रहता है ।
जल तत्व के द्रवीभूत गुण के कारण कि बिना किसी कड़ाई के या ठोस पदार्थ के जल कहीं ठहर ही नहीं सकता, सदा नीचे की ओर बहता चला जा रहा है । इसलिए शक्ति ने आकाश-वायु- अग्नि-जल चारों से ही मेल-मिलाप कर-कराकर अपने प्रभाव से ही, इस पाँचवें पदार्थ तत्व रूप थल को उत्पन्न किया । ब्रम्हाण्ड में जितनी ठोस वस्तुयें दिखाई दे रही हैं, सभी की सभी ही इस थल तत्व विभाग के अन्तर्गत ही आती हैं ।
क्या ही विचित्र रचना या विधि-विधान है परम प्रभु का कि जल के चारों तरफ थल और थल के चारों तरफ जल दिखाई दे रहा है, जिससे यह कहना भी एक कठिन बात ही है कि जल से थल घिरा है या थल से जल घिरा है । यह तो स्पष्टत: दिखाई दे रहा है । देखें-जानें कि प्राय: जहाँ पर जल दिखाई दे रहा है, उसके नीचे थल तथा जहाँ पर थल दिखाई दे रहा है, उसके नीचे जल स्थित किये हुये है ।
धन्य है, परमप्रभु तेरी महिमा को धन्य ! तेरी विधि व विधान तथा धारती व आसमान धन्य हैं और तुझे तो चाहे जितना भी धन्यवाद दिया जाये, तेरे लिये कम है क्योंकि धन्यवाद भी तो तुम्हीं से आकर, इसको निमित्ता मात्र बनाता हुआ तेरे पास ही चला जा रहा है। धन्य है तेरी महिमा प्रभो! कि सृष्टिकाल में तेरे से ही क्रमश: आत्म-शक्ति-आकाश- वायु-अग्नि-जल-थल तथा इससे उत्पन्न विषय वस्तुयें अन्त में तेरे में ही क्र्रमश: उल्टी गति से तत्त्वज्ञान महाप्रलय काल में लय कर जाती हैं ।
सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! यहाँ जिस क्रमश: पाँच पदार्थ तत्वों की चर्चा की गई है, अति संक्षिप्तत: चर्चा, सारांश रूप में ही की गई है । चूंकि सम्पूर्ण सृष्टि की रचना या उत्पत्तिा परम प्रभु के निर्देशन में आत्म-शक्ति रूप 'प्रभा' ने अपने 'हूँ' कार से 'हूँ' से 'ह्-' के साथ आपस में मेल-मिलाप करते हुये जड़ जगत् तथा से देव तथा देव लोक की रचना या उत्पत्ति की या हुई । आत्म-शक्ति अथवा ब्रम्ह-ज्योति 'प्रभा' शक्ति के आपसी मेल-मिलाप से ही 'ह्' अक्षर, शब्दादि सूक्ष्म विषय तथा आकाश आदि पदार्थ तत्व भी क्रमश: उत्पन्न हुये तथा उन्हीं आत्म-ज्योति से ही उत्पन्न , देव तथा देव लोकों की रचना में माध्यम बना । पूरी सृष्टि इन्हीं पाँच पदार्थ तत्वों से ही युक्त होने के कारण और सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रम्हाण्ड का ही समग्र रूपों के अंशत: मेल-मिलाप रूप यह पिण्ड (शरीर) ब्रम्हाण्ड का ही एक इकाई है ।
पिण्ड और ब्रम्हाण्ड का तुलनात्मक रूप
जो कुछ भी ब्रम्हाण्ड में है, उसका अंशवत् रूप कुछ न कुछ इस पिण्ड (मानव शरीर) में निश्चित ही है । यही कारण है कि इस शरीर में पाँच ही ज्ञानेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियों के सहायक रूप में पाँच ही कर्मेन्द्रियाँ भी हैं। पाँच तत्तवों से सम्बन्धित अपने-अपने सम्बन्ध स्थापित रखने तथा सृष्टि और शरीर अथवा ब्रम्हाण्ड और पिण्ड में आपसी ताल-मेल बनाये रखने हेतु ही रचित एवं निर्धारित की गई या हुई। ब्रम्हाण्ड में जो 'गुण प्रधान दैव वर्ग' है, उसका प्रतिनिधिात्व पिण्ड में 'बुध्दि' करती है तथा ब्रम्हाण्ड में जो दोष प्रधान शैतान (असुर) वर्ग है, उसका प्रतिनिधित्व 'मन' करता है। अहंकार जो है वह--जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड में सर्वेसर्वा 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप शब्द ब्रम्ह या परमब्रम्ह या परमेश्वर रूप 'परम' ही अधिकार चलाता है, ठीक उसी प्रकार पिण्ड में यह 'अहं' शब्द रूप 'अहंकार' अधिाकार चलाता है। पुन: जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड पर परमप्रभु का स्वत्तवाधिकार स्थापित रहता है, ठीक उसी प्रकार पिण्ड पर 'अहं' शब्द सहित सूक्ष्मरूप जीव का स्वत्तवाधिकार रहता है । जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड में देव या सुर और दनुज-दानव या असुर अथवा सज्जन और दुर्जन होते-रहते हैं, ठीक उसी प्रकार पिण्ड में बुध्दि और मन होता-रहता है। जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड में सूर्य-चन्द्रमा हैं और वे ब्रम्हाण्ड के ऊपरी हिस्से में आकाश में दिखाई देते है, ठीक उसी प्रकार पिण्ड में भी सूर्य-चन्द्रमा रूप दो ऑंख पिण्डीय सिर में ऊपरी सामने हिस्से में स्पष्टतया दिखाई देते हैं। जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड में रात्रि के अन्धेरे में अगणित तारे दिखाई देते है, ठीक उसी प्रकार पिण्ड में भी धयान के समय अन्धकार के बेला में अगणित तारे दिखाई देते हैं । इसे योगी-साधाक एवं आध्यात्मिक जन ही क्रियात्मक साधना से देखते हैं । जिस प्रकार पृथ्वी पर नदियाँ हैं, उसी प्रकार पिण्ड में नाड़ियाँ हैं । जिस प्रकार ब्रम्हाण्ड ब्रम्ह-शक्ति का एक क्रीड़ा स्थल है, उसी प्रकार पिण्ड भी सोऽहँ-आत्मा से जीव से शरीरमय का क्रीड़ा स्थल है ।
ब्रम्हाण्ड परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह की शरीर है तो पिण्ड सोऽहँ- हँऽसो की शरीर है। अत: दोनों समान होने पर भी ब्रम्हाण्ड अंशी और पिण्ड उसका अंश मात्र है। परमतत्त्वम् खुदा या गॉड या लार्ड या यहोवा या भगवान् ही ब्रम्हाण्ड तथा पिण्ड दोनों का प्रधान संचालक हैं, जो परमधाम या बिहिश्त या पैराडाइज में 'सदानन्द' रूप सच्चिदानन्द (ETERNAL BLISS) मय रहता हुआ सभी का संचालन करता-कराता रहता है । वही परमप्रभु युग-युग में पृथ्वी की संचालन व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाने पर, परमधाम से इस भू-मण्डल पर अवतरित होकर, कोई शरीर धारण कर उसी के माध्यम से चाहे जिस तरह भी विधिा-व्यवस्था सत्य-धार्म-न्याय-नीति प्रधान हो, संस्थापित कर, शासन कर दिखाकर, पुन: वापस चला जाता है। वही परम प्रभु ब्रम्हाण्ड और पिण्ड दोनों का ही अंशी है तथा दोनों का ही लय-प्रलय रूप भी है।
वही परमब्रम्ह परमेश्वर वर्तमान में भी भू-मण्डल पर अवतरित होकर अपना सत्य-धर्म संस्थापन कार्य प्रारम्भ कर चुका है - कर रहा है। आवश्यकता है उन्हें खोज-जान-देख-परख पहचान कर उनके प्रति समर्पित-शरणागत हो कर धर्म-धर्मात्मा-धारती रक्षार्थ उनके परम पुनीत कार्य में सेवा-सहयोग रूप में जुड़ कर अपने जीवन को सफल-सार्थक बनाते हुए मोक्ष रूप मि×जल को प्राप्त करने की।