5. शिव व लेखराज और प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले
किसी को उपदेश देना एक पवित्र कार्य है । उसमें भी धर्मोंपदेश देना तो बहुत ही पवित्र कार्य है । समाज को ज्ञानमय-भगवन्मय उपदेश देना तो जीवन का उद्देश्यमूलक सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्तम और परम पवित्र कार्य है । किसी को भी किसी भी कार्य को करते समय कम से कम इतनी सावधानी तो अवश्य ही बरतनी चाहिए कि इस उपदेश या कार्य से किसी को भी किसी भी प्रकार की कोई क्षति या हानि न हो । इतनी जिम्मेदारी तो हर किसी उपदेशक या कार्यकर्ता को अपने ऊपर लेना ही चाहिए कि मेरे उपदेश या कार्य से किसी का भला-कल्याण हो या न हो मगर क्षति या हानि तो न ही हो । भला-कल्याण करना ही धर्मोपदेशक का एकमेव एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये--होना ही चाहिए । किसी भी विषय-वस्तु का उपदेशक बनने-होने के पहले सर्वप्रथम यह बात जान लेना अनिवार्यत: आवश्यक होता है कि उस विषय-वस्तु का परिपक्व सैध्दान्तिक-प्रायौगिक और व्यावहारिक जानकारी स्पष्टत:-- परिपूर्णत: हो। धर्मोपदेशक के लिए तो यह और ही अनिवार्य होता है मगर आजकल ऐसा है नहीं । धर्मोपदेश जैसे पवित्रतम् विधान को भी आजकल धन उगाहने का एक धन्धा बना लिया गया है जिससे धर्म की मर्यादा भी क्षीण होने लगती है, होने लगी भी है ।
धर्मोंपदेशक अथवा गुरु बनना--सद्गुरु बनना आज-कल एक शौक-धन्धा, बिना श्रम का मान-सम्मान सहित प्रचुर मात्रा में धन-जन को एकत्रित करना हो गया है । भले ही परमेश्वर और ईश्वर तो परमेश्वर और ईश्वर है, जीव की भी वास्तविक जानकारी न हो । अब आप सब स्वयं सोचें कि ऐसे गुरुजन सद्गुरुजन-धर्मोपदेशक बन्धुजन क्या धर्मोपदेश देंगे ? ऐसे धर्मोपदेशकों के धर्मोपदेश से कैसा दिशा निर्देश और मार्गदर्शन होगा ? समाज में इतना भ्रम फैलेगा कि हर कोई मंजिल के तरफ जाने के बजाय प्रतिकूल दिशा में जाने लगेगा, जिसका दुष्पिरिणाम यह होगा कि भगवान् और मोक्ष (मुक्ति-अमरता) के आकर्षण के बजाय हर कोई माया और भोग में आकर्षित होता हुआ मार्ग-भ्रष्ट हो ही जायेगा। समाज में भगवान् के प्रति आकर्षण के बजाय विकर्षण होने लगता है और भगवद् भक्ति-सेवा के बजाय मनमाना नाना प्रकार के विकृतियों का शिकार हो जाया करते हैं । वर्तमान में ऐसे ही होने भी लगा है। चारों तरफ देखें।
आजकल के गुरुजनों की स्थिति बड़ी ही विचित्र हो गयी है । समाज कल्याण तो अपने मिथ्यामहत्तवाकांक्षा की पूर्ति के लिए एक प्रकार का मुखौटा मात्र बनकर रह गया हैं । मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकारमय बना रहना और चाहे जिस किसी भी प्रकार से हो, धन-जन-आश्रम बढ़ाना मात्र ही धर्म रह गया है । दूसरे को उपदेश तो खूब दे रहे हैं मगर अपने पर थोड़ा भी लागू नहीं कर पा रहे हैं ।
ऐसे ही महात्मजनों में एक लेखराजजी और उनका समाज भी है जिन्होंने एक संस्था प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय संस्थापित किया। यह संस्था जितनी ही ढोंगी-पाखण्डी है, उतनी ही धूर्तबाज भी है । जितनी ही अज्ञानी है, उतनी ही मिथ्याज्ञानाभिमानी भी है। इस संस्था को परमात्मा-परमेश्वर का ज्ञान तो बिल्कुल ही नहीं है, आत्मा-ईश्वर का भी ज्ञान नहीं है । जीव की भी इसे कोई जानकारी नहीं है । इतना ही नहीं, इसे तो मन-बुध्दि-संस्कार की भी जानकारी नहीं है कि ये सब क्या हैं ?
इतना ही नहीं, आश्चर्य की बात तो यह है कि इन्हें यह भी नहीं मालूम कि हवा का रूप होता है कि नहीं । 'रूप' शब्द क्या है ? कहाँ पर इसका प्रयोग होता है ? लेखराज और इसके संस्था वाले बिल्कुल ही इससे अनभिज्ञ हैं । मगर ढोंगी-पाखण्डियों का ही आज-कल प्रचार-प्रसार, बोल-बाला और सारी मान्यताएँ हैं । शान्ति-शान्ति कहते रहिए जनमानस के धन-धरम दोनों का शोषण करते रहिए, सरकार को कोई परेशानी नहीं हैं क्यों भाई ? इसलिए कि शान्ति वाले है जिससे राजनेता भी प्रसन्न हैं भले ही जनता का धन-धरम दोनों जाय जहन्नुम-नरक में ।
इसका मुखौटा श्रीकृष्ण जी से सराबोर है । महाकुम्भ जैसे विश्व के सबसे बड़े धर्म मेले में इसका पण्डाल और मुख्य द्वार ऐसा सजाया जाता है कि लगता है कि कृष्ण जी की सबसे बड़ी भक्ति और प्रचारक संस्था यही है। मगर अन्दर से देखिये तो कितनी बड़ी धूर्तबाजी है कि श्रीकृष्ण जी का घोर अपमान है । श्रीराम और श्रीकृष्ण जी का घोर अपमान और अपने लेखराज तथाकथित ब्रम्हा बाबा का पूर्ण सम्मान जैसे अज्ञानता मूलक बकवास ही देखने को मिलेगा, जिसका किसी भी ग्रन्थ से कोई प्रमाण नहीं-- कोई मान्यता नहीं, फिर भी राजनेता तो इसको और ही सिर-माथे चढ़ा लिये हैं जिससे जनता भी फँसती जाती है।
यह संस्था शान्ति का मुखौटा पहन कर चाटुकारिताप्रिय राजनीतिज्ञ की चाटुकारिता कर-कर के उपराष्ट्रपति से और राष्ट्रपति महोदय आदि आदि से अपने यहाँ बार-बार किसी न किसी सभा-उत्सव का उद्धाटन करवाते रहते हैं और उसी के आड़ में समाज का धन-धर्म दोनों का ही दोहन-शोषण करने में लगे हैं । यह संस्था जितना ही घोर आडम्बरी- पाखण्डी है उतना ही धूर्तबाज भी, और उससे भी अधिक राजनीतिज्ञों का चाटुकार भी ।
घोर घोर घोर अनर्थकारी संस्था है प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय
क्या कहा जाय ऐसे जनमानस को ! हवा, मन, बुध्दि, संस्कार, जीव, आत्मा, परमात्मा, अनुभव, देखना, मुक्ति-अमरता आदि आदि व ब्रम्हा जी, विष्णु जी, शंकर जी, 84 लाख योनियाँ, पुर्नजन्म-अवतार- अवतरण आदि की ऐसी ऊल-जलूल शास्त्र के विरुद्व मनमाना गलत अर्थ तोड़-मरोड़ कर सारे शब्दों के अर्थ-मान्यता को अनर्थ करते जा रहे हैं। राजनेता लोग इस आडम्बर-ढोंग-पाखण्ड को जान-देखकर रोकने के बजाय भरपूर हवा देने में लगे हैं क्योंकि इन सबों के शान्ति के मुखौटा के ये नेताजी लोग शिकार हो चुके हैं । शान्ति शान्ति बोलते रहो और जनमानस के साथ धूर्तबाजी करते हुये धन-धर्म दोनों का शोषण करते रहो । सरकार के लिये सब कुछ ठीक है। सरकार को तो शान्ति- शान्ति-शान्ति चाहिये, भले ही उसके आड़ में आप जनता के धन-धर्म दोनों का ही शोषण करते-कराते हुये नाश-विनाश तक करते रहें । सरकार के लिये सब ठीक ही है क्योंकि आप शान्ति का नारा जो लगा रहे हैं, शान्ति-शान्ति जो चिल्ला रहे हैं । फिर तो सरकार आप के सुरक्षा में है ही । सरकार को सत्य और अपनी जनता के कल्याण से क्या मतलब ?
जितना ही घोर अज्ञानी उतना ही मिथ्याज्ञानाभिमानी
यह तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था ऐसी घोर मिथ्याज्ञानाभिमानी संस्था है कि परमात्मा -परमेश्वर- आत्मा-ईश्वर-जीव, मन-बुध्दि-संस्कार, प्रकृति-हवा, तत्त्वज्ञान, योग या अधयात्म-स्वाध्याय, चौरासी लाख योनियाँ, ब्रम्हा-विष्णु-महेश-शिव, श्रीराम-श्रीकृष्ण-अवतरण और अवतार आदि आदि धर्म प्रधान, अस्तित्व प्रधान, ज्ञान और योग प्रधान आदि शब्द जो हैं-- इनके बारे (सम्बन्ध) में ये बिल्कुल ही अनजान हैं । फिर भी अपने को मनमाने तरीके से शास्त्र के विरुध्द यानी शास्त्रों में वर्णित शब्दों के सत्यतामूलक अर्थों-व्याख्यानों-भावों को अपने मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकारवश तोड़-मरोड़ कर अर्थ-- शुध्द व सही अर्थ को न जान-समझ सकने के कारण अनर्थ कर-कराकर जनमानस को ऐसा दिग्भ्रमित-- ऐसा दिग्भ्रमित करने पर लगे हैं कि जनमानस में श्रीराम जी, श्रीकृष्ण जी, ब्रम्हा जी, श्रीविष्णु जी, तत्त्वज्ञान, योग... .आदि उपर्युक्त शब्दों की सद्ग्रन्थों (गीता-पुराण आदि सद्ग्रन्थों) की सही और शुध्द-विशुध्द भावों के प्रति अपवित्र-अशुध्द-दुर्भाव रूप विकृत-घृणित भाव पैदा-उत्पन्न करने और उस विकृत घृणा भाव को सुकृत-सत्कृत् भाव का रूप देता हुआ अति तीव्रता से फैलाने में लगे हैं । जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि सनातन धर्म के मान्यता प्राप्त सद्ग्रन्थों के मान्यता-मर्यादा को बड़े ही योजना बध्द तरीके से शान्ति: शान्ति: के आड़ में विध्वंस किया जा रहा है समाप्त किया जा रहा है ।
सत्य और सद्ग्रन्थों के अस्तित्त्व और सद्भाव को नष्ट कर विकृत् दुर्भाव फैलाना
ऐसा-ऐसा खींच-तान करके मनमाने और ऊल-जलूल अर्थ-तर्क प्रस्तुत कर-कराके 'परम पवित्र सत्य प्रधान धर्म' का चोला पहनकर-- मुखौटा लगाकर ''सत्य और सद्ग्रन्थ'' के अस्तित्त्व और सद्भाव को अपने घोर अपवित्र असत्य-अधर्म को फैलाकर नष्ट-समाप्त करने पर अत्यन्त तीव्र गति से यह तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हा कुमार कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था लगी हुई है । विश्व स्तर पर ही सनातन पौराणिक मान्यताओं को नष्ट किया जा रहा है, सनातन सत्य मान्यता को समाप्त कर उसके स्थान पर भष्ट-झूठी मान्यताएँ स्थापित की जा रही हैं ।
यह घोर असत्यवादी और अधार्मिक संस्था है, प्रमाणित करने को तैयार हूँ
भगवत् कृपा और तत्त्वज्ञान के प्रभाव से मैं सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस उपर्युक्त संस्था के प्राय: या लगभग समस्त जानकारियों को जो उनके किताबों द्वारा दी-फैलायी जा रही है, प्राय: या लगभग समस्त को ही असत्य (मिथ्या), भ्रामक (दिग्भ्रमित करने वाला ऊल-जलूल कुतर्क पर आधारित), घोर असत्य और अधर्म पर आधारित व शास्त्र-सद्ग्रन्थ विरुद्व प्रमाणित करने की खुले मंच से खुली चुनौती देता हूँ । पूर्वोक्त पैरा (पुन: एक बार पढ़-देख लें) के समस्त चुनौती भरे कथन को सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों के आधार पर आवश्यकता महसूस होने पर प्रायौगिक (प्रैक्टिकल) के आधार पर भी सत्य और सद्ग्रन्थीय होने की पूरी चुनौती दे रहा हूँ । साथ ही साथ यह भी चुनौती दे रहा हूँ कि मेरे पूर्वोक्त पैरा के कथनों-तथ्यों को सद्ग्रन्थों और प्रायौगिकता के आधार पर भी उक्त तथाकथित संस्था के किसी भी अधिकारिक व्यक्ति द्वारा गलत प्रमाणित करने वाले के प्रति अथवा उक्त संस्था के प्रति सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस अपने सकल सेवक-शिष्य समाज व आश्रमों सहित समर्पित-शरणागत हो जायेंगे । मगर एक बात याद रहे कि कोई भी एकतरफा शर्त वैधानिक आधार पर मान्य नहीं होता है । इसलिए मेरे पूर्वोक्त कथनों को वे सद्ग्रन्थीय अथवा प्रायौगिक (प्रैक्टिकली) आधार पर गलत प्रमाणित नहीं कर सके-- मेरे उक्त कथन सत्य ही साबित प्रमाणित हो जाने पर उक्त संस्था के सदस्यों और आश्रमों को भी 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस तथा उनकी संस्था ''सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्'' के प्रति भी समर्पित-शरणागत करना-होना-रहना ही पडेग़ा । यह अपने को सही और पूरण कहने वालों को गलत अथवा आध-अधूरा प्रमाणित करने वाला चुनौती इस पुष्पिका के अन्तर्गत उल्लिखित समस्त पूर्वापर (पूर्व और पश्चात् के) महात्मागण (धर्मोपदेशकों) के लिए भी है। किसी के प्रति कोई भेद-भाव नहीं है । समस्त चुनौती व शर्त सबके लिए है-- सबके ही लिए है।
तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था के किताबों-उपदेशों में से कौन-कौन से ''शब्द-विषय'' भ्रामक-मिथ्या-गलत और घोर अधार्मिक व शास्त्र विरुध्द हैं--पूछने पर मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) तो यथार्थत: और स्पष्टत: यही कहूँगा कि एक-आध शब्द-बात-तथ्य-विषय को छोड़कर उनके समस्त किताबों के समस्त विषयों-तथ्यों-शब्दों जो पूर्वोक्त पैरा में हैं, प्राय: या लगभग समस्त को ही भ्रामक-मिथ्या- गलत-घोर अपवित्र-अधार्मिक, शास्त्र विरुध्द और सद्ग्रन्थ विरुध्द प्रमाणित करने की चुनौती देता हूँ । यहाँ विस्तार से बचने के लिये दो-चार तथ्यों को अति संक्षिप्तत: प्रस्तुत कर दे रहा हूँ कि समझ में आ जाय कि उपर्युक्त बातें मात्र कथनी की नहीं अपितु सत्य-तथ्य पर आधारित हैं । उनकी किताबों से:-
1 . क्या आप जानते हैं कि गीता-ज्ञान किसने दिया था अर्थात् गीता के भगवान् कौन ?
उक्त संस्था का कथन है कि गीता-ज्ञान श्रीकृष्ण ने नहीं दिया था बल्कि निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने दिया था और फिर गीता-ज्ञान से सत्ययुग में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था आदि आदि इसी प्रकार की बहुत सी ऊल-जलूल व मिथ्यात्त्व पर आधारित बातें लिखी गयी हैं । यहाँ पर स्थानाभाव के चलते एवं विस्तृत विस्तार से बचने हेतु मुख्य-मुख्य बातें और तथ्यों से ही समझने का प्रयत्न करें ।
मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस तत्त्वज्ञान वाले का कथन है कि....
यह सर्व विदित है कि गीता-ज्ञान भगवान् श्रीकृष्ण जी ने ही दिया था, शिव ने नहीं । अब यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि--शिव कौन और श्री कृष्ण कौन ? उक्त प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ई0वि0 विद्यालय के कथनानुसार शिव एक ज्योति बिन्दु है यानी शिव एक दिव्य ज्योति हैं । पुन: उक्त संस्था के अनुसार श्रीकृष्ण मात्र एक सांसारिक मनुष्य है, जो देवता कहला सकते हैं या देवता हैं। मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का कथन है कि..... प्राय: हर वर्ग-सम्प्रदाय और संस्था-समाज वालों में एक घोर विकृति यह छायी हुई दिखायी देती है कि अपने और अपने अगुओं को तो ये सब के सब शरीर से अलग जो मूलभूत सूत्र-सिध्दान्त होता है, उस आधार पर और उस दृष्टि से देखते हैं परन्तु अन्यों को शारीरिक-बिल्कुल ही सांसारिक-शारीरिक दृष्टि से देखते हैं । यहीं पर भ्रम-भूल और तत्पश्चात् गलतियाँ होनी शुरु हो जाती हैं। यह स्थिति प्राय: समस्त वर्ग-सम्प्रदाय-संस्था और समाज में ही है-- सभी के सभी ही इसी भ्रम-भूल और गलती के शिकार हैं ।
यही उपर्युक्त स्थिति उक्त संस्था की भी है कि लेखराज (तथाकथित ब्रम्हा बाबा) तो उस ज्योति विन्दु के अंश और कहीं-कहीं पूर्ण अवतरित (ज्योति विन्दु ही अवतरित) दिखायी दे रहे हैं और श्रीकृष्ण मात्र शारीरिक-सांसारिक और जन्मने-मरने वाला मनुष्य या क्षमता-शक्ति सामर्थ्य के चलते अधिक से अधिक देवता तक दिखायी दे रहे हैं। यह उपर्युक्त पैरा वाली ही बात हुई।
मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस को लेखराज तथा उनके संस्था प्र0ब्र0कु0ई0वि0 विद्यालय के इस मान्यता कि 'शिव' एक ज्योति विन्दु हैं, ज्योतिर्मय विन्दु ही शिव हैं, को स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि यही सही है । परेशानी तो वहाँ है कि ज्योतिर्विन्दु शिव ही परमपिता परमात्मा है-- यह सही नहीं है । यह बिल्कुल ही गलत है । परमपिता परमात्मा तो दिव्य ज्योति-ज्योतिर्विन्दु रूप आत्मा-शिव का भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप शब्द (बचन) रूप खुदा-गॉड- भगवान् है । परमपिता परमात्मा तो आत्मा-ईश्वर- शिव सहित सारी सृष्टि का ही पिता, संचालक, नियन्त्रक और लय-विलय कर्ता होता है और वह ही श्रीकृष्णजी के रूप में अवतरित था । श्री कृष्ण जी ज्योति विन्दु रूप शिव के भी पिता रूप परमतत्त्वम् रूप भगवत्तत्त्वम् के ही साक्षात् पूर्णावतार रूप साक्षात् भगवदवतार ही थे ।
'शिव स्वरोदय' के आधार पर भी शिव-शक्ति-ज्योतिर्मय हँऽसो है और सोऽहँ- हँऽसो-ज्योति का परमपिता और स्वामी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् है । यही 'अलम्' खुदा अथवा शब्द (बचन) रूप गॉड भी है । इसी खुदा-गॉड-भगवान् के साक्षात् पूर्णावतार ही भगवान् श्रीविष्णु जी, भगवान् श्रीराम जी और भगवान् श्रीकृष्ण जी थे जो ज्योति रूप आत्मा-हँऽस-शिव के भी परमपिता और संचालक स्वामी भी थे ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् के मन्त्र संख्या 4/18 में स्पष्टत: है कि परमात्मा-परमेश्वर अन्धकार तो है ही नहीं, दिव्य ज्योति भी नहीं है, बल्कि वह दोनों से ही परे और कल्याणरूप 'तत्त्वम्' है जबकि प्रजापिता ब्र0 कु0 ई0 विश्वविद्यालय वाले आत्मा को तो कहीं सूक्ष्म आकृति और कहीं-कहीं ज्योति माने ही हैं, परमात्मा को भी ज्योतिर्विन्दु ही कहते हैं।
लेखराज और सरस्वती सहित उनके प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय वाले जितना ही ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी-गलत-झूठ और धूर्तबाज हैं, उतना ही मिथ्याहंकारी भी हैं । जितना ही अज्ञानी हैं, उतना ही भ्रमज्ञानी, मिथ्याज्ञानाभिमानी भी हैं। इन सबों को तो इतना भी पता नहीं है कि-
1 . हवा में रूप होता है कि नहीं ? होता है तो कैसा है ? नहीं, तो क्यों ?
2 . मन क्या चीज है ?
3 . बुध्दि क्या है ?
4 . जीव क्या चीज है ? यह तो इन लोगों का विषय ही नहीं है
5 . आत्मा कहीं से सुन-पढ़ लिए हैं कि एक ज्योति विन्दु है, जानकारी नहीं है, क्योंकि प्राय: आत्मा के सम्बन्ध में जो कुछ भी जानकारियाँ इनके यहाँ-- ईश्वरीय ज्ञान का साप्ताहिक पाठयक्रम में लिखी हैं, प्राय: सबकी सब झूठी-गलत एवं भ्रामक हैं । यह सद्ग्रन्थों द्वारा प्रमाणित करने की मैं (सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस) खुली चुनौती दे रहा हूँ और यह भी कह रहा हूँ कि झूठा-गलत व भ्रामक और शास्त्र विरुध्द न प्रमाणित कर दूँ तो अपने सकल भक्त-सेवक समाज सहित उनके प्रति पूर्णत: समर्पित-शरणागत हो जाऊँ, मगर प्रमाणित कर दूँ तो उन्हें भी पूर्णत: समर्मित-शरणागत करना होगा । सब भगवत् कृपा ।
उन लोगों की जानकारी और मान्यता में आत्मा तो ज्योति है ही, परमात्मा भी वैसा ही ज्योति विन्दु ही है, जो सरासर गलत है। जीव के सम्बन्ध में तो उनके यहाँ कोई जिक्र ही नहीं है, जबकि आत्मा का सारा वर्णन, जीव का ही वर्णन जैसा ही है और इनका जो ज्योतिर्विन्दु रूप शिव है, उन्हें यह भी पता नहीं कि वह परमपिता परमात्मा नहीं है, बल्कि आत्म-ज्योति रूप आत्मा-दिव्य ज्योति रूप ईश्वर-ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति-स्वयं ज्योति रूप शिव शक्ति मात्र ही है। परमपिता तो ज्योति विन्दु रूप शिव-शक्ति का भी पिता रूप परमतत्त्वम् ही है ।
तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय संस्था का नाम ईश्वरीय विश्व विद्यालय है, परमेश्वरीय नहीं । इस संस्था के अभीष्ट ज्योति विन्दु आत्मा या शिव है और ज्योति विन्दु रूप ईश्वर का ही होता है । यहाँ तक तो कहने मात्र के लिये ये लोग सही हैं, मगर इन लोगों का सबसे भारी भूल-गलती, मिथ्या ज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकार यह है कि ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा को ही ये ज्योति विन्दु रूप परमपिता परमात्मा भी मान बैठे हैं- मनवा रहे हैं। जबकि यह गलत है और ये समाज को गलत उपदेश देकर ज्योति मात्र में ही भरमा-भटका कर लटका दे रहे हैं जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि वास्तविक ज्योति विन्दु रूप आत्मा-ईश्वर-शिव का भी पिता परमतत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् है, को भी आत्मा-शिव ही माना जाने लगता है । एक बार पुन: स्पष्ट कर दूँ कि ज्योति विन्दु आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह-नूर-सोल- स्पिरिट-शिव मात्र है परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् नहीं । परमात्मा-परमेश्वर तो ज्योतिर्विन्दु रूप शिव का भी पिता रूप है ।
इन लोगों तथा मात्र इन लोगों की ही नहीं, पूरे भू-मण्डल पर आज वर्तमान मात्र में ही नहीं- आदि-काल से ही श्रीविष्णु जी महाराज, श्रीराम जी महाराज और श्री कृष्ण जी महाराज के सिवाय प्राय: सभी समस्त धर्मोपदेशकों ने ही चाहे वे किसी भी वर्ग-समाज-सम्प्रदाय-पंथ-ग्रन्थ के ही क्यों न हों, सभी के सभी ही ने यह भारी भूल या गलती या मिथ्या ज्ञानाभिमान या मिथ्याहंकार किया था, किया है और कर भी रहे हैं कि अपने (जीवत्त्व रूप) को ही तथा सबके शरीर में रहने वाले अहँ-मैं-आइ (जीवत्त्व) को ही ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा और इसी ज्योति बिन्दु-शिव आत्मा को ही परमतत्त्वम् रूप परमात्मा; इसी ज्योति रूप शिव-ईश्वर को ही परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर; इसी ज्योति रूप ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह; इसी ज्योति (नूर) को ही अलम् रूप अल्लाहतआला; इसी ज्योति (लाइफ लाइट) को ही 'वर्ड-गॉड; इसी ज्योति विन्दु शिव को ही परमतत्त्वम् रूप भगवान्-परमपिता मानना--घोषित करना, अपने अनुयायियों और किताबों-ग्रन्थों को मनमाना लिख-लिखवा कर समस्त धर्मप्रेमी जनमानस को भी भ्रामक और गलत जानकारियाँ दे-दिवाकर धर्मप्रेमी-भगवत् प्रेमी जनों को भरमा-भटका कर परमात्मा-परमेश्वर- खुदा-गॉड-भगवान के वास्तविक परमतत्त्वम् रूप 'वर्ड-गॉड' रूप वास्तविक परमात्मा से बंचित-च्युत तो करा ही दे रहे हैं, खुद अपने ही 'स्व-रूह-सेल्फ' रूप सूक्ष्म शरीर की जानकारी -दर्शन से भी बंचित कर-करा दे रहे हैं ।
अत: इन लोगों के कथनानुसार जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं भी आत्मा ही है और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमपुरुष भी आत्मा (ज्योति विन्दु) रूप शिव ही है, पृथक्-पृथक् तीनों ही तीन नहीं हैं बल्कि 'एक' का ही तीन नाम है, तो क्या ये लोग आत्म-ज्योति से पृथक् परमतत्त्वम् परमात्मा- परमपुरुष के पृथक् अस्तित्त्व को मिटाना नहीं चाह रहे हैं ? क्या आत्मा से भी श्रेष्ठ और पृथक् परमात्मा-परमपुरुष नहीं है तो यह मंत्र क्या कह रहा है ? क्यों नहीं देखते या इन्हें दिखायी ही नहीं देता ?
इन्द्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन: । मनसस्तु परा बुध्दिर्बुध्देरात्मा महान् पर: ॥ महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुष: पर: । पुरषान्न परं किंचित्न्सा काष्ठा सा परा गति: ॥
(कठोपनिषद् 1/3/10-11)
हि इन्द्रियेभ्य: = क्योंकि इन्द्रियों से; अर्था: = शब्दादि विषय; परा:= बलवान है; च = और; अर्थेभ्य:= शब्दादि विषयों से; मन:= मन; परा:= प्रबल है; तु मनस:= और मन से भी; बुध्दि:= बुध्दि; परा= बलवती है; बुध्दे = बुध्दि से; महान् आत्मा = महान् आत्मा; महत:= महान् (आत्मा) से; परम= श्रेष्ठ-बलवती है; अव्यक्तम् = भगवान कि अव्यक्त मायाशक्ति; अव्यक्तात् = अव्यक्त माया से भी; पर:= श्रेष्ठ; पुरुष:= परमपुरुष (स्वयं परमेश्वर); पुरुषात् = परमपुरुष भगवान् से; परम् = श्रेष्ठ और बलवान्; किंचित्:= कुछ भी; न:= नहीं है; सा काष्ठा = वही सबका परम अवधि (और); सा परागति:= वही परमगति है ।
(कठोपनिषद् 1/3/10-11)
इन्द्रियों से शब्दादि विषय बलवान् है तथा शब्दादि विषयों से मन प्रबल है और मन से भी बुध्दि बलवती है । बुध्दि से महान् आत्मा है और महान् आत्मा से भी श्रेष्ठ-बलवती भगवान् की अव्यक्त मायाशक्ति है और अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ परमपुरुष-परमेश्वर हैं । परमपुरुष भगवान् से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है । परमात्मा ही सब की परम अवधि और वही परमगति है। ज्योति विन्दु रूप आत्मा अथवा ज्योति विन्दु रूप शिव को ही परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् मानने वालों को और हँऽसो ज्योति रूप आत्मा-शिव से श्रेष्ठ और कुछ नहीं मानने वालों के लिए इन मन्त्रों के अर्थ-भाव और यथार्थ स्थिति का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? यहाँ तो सभी के वास्तविक अस्तित्त्व-स्थिति को स्पष्टत: श्रेणीबध्द रूप में क्रमश:पृथक्-पृथक् बतलाते हुए जनाया गया है। इससे भी समझ में न आवे तो भगवान् परमात्मा क्या करे, आप अभागों को ? सब भगवत् कृपा ।
(नोट:-अभी तो ये ऊर्ध्वमुखी हँऽसो-ज्योति की बातें की जा रही है जो परमात्मा तो है ही नहीं, शुध्द आत्मा भी नहीं है, बल्कि जीव और आत्मा का संयुक्त रूप में ऊर्ध्वमुखी यौगिक स्थिति है। वर्तमान कालिक महात्माओं का सोऽहँ तो स्पष्ट ही पतन कारक अर्थात् पतन को जाता हुआ विनाश को ले जाने वाला है । इस पतनोन्मुखी सोऽहँ वालों की तो इसमें कोई गिनती ही नहीं है । ये उपर्युक्त बातें तो ऊर्ध्वमुखी हँऽसो-ज्योति वालों से की जा रही है ।)
ज्योति प्रधान समस्त सोऽहँ- हँऽसो-आत्मा-स्वयं ज्योति रूप शिव-शक्ति को ही परमपिता-परमात्मा-परमेश्वर-मानने-मनवाने वालों को यह जान लेना चाहिए कि ईश्वर ही परमेश्वर नहीं होता है बल्कि ईश्वरों का भी महान ईश्वर परम ईश्वर अर्थात् परमेश्वर होता है श्वेताश्वतरोपनिषद् का ही एक सत्प्रमाण गौर से देखें-
तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम् ।
तिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीडयम्॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद् 6/7)
व्याख्या-- वे परमब्रम्ह पुरुषोत्तम समस्त ईश्वरों के भी महान ईश्वर अर्थात् परमेश्वर रूप परम शासक हैं, अर्थात् ये सब ईश्वर भी उन परमेश्वर के अधीन रहकर जगत् का शासन करते हैं। वे ही समस्त देवताओं के भी परम आराध्य देव हैं। समस्त पतियों-रक्षकों के भी परम पति है तथा समस्त ब्रम्हाण्डों के स्वामी हैं। उन स्तुति करने योग्य परमदेव-परमात्मा को हम लोग सबसे परे जानते हैं। उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। वे ही इस जगत् के सर्वश्रेष्ठ कारण है और वे सर्वरूप होकर भी सबसे सर्वथा पृथक् हैं ।
यह उपर्युक्त मन्त्र बतला रहा है कि ईश्वरों का भी परम होता है परमेश्वर। ईश्वर से पृथक् और 'परम' परमेश्वर का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा ? आत्मा से भी परम पूर्वोक्त मन्त्र में परमपुरुष को बताया गया है और उससे भी पूर्व के मन्त्रों में हँऽसो नाम ज्योति रूप आत्मा-शिव के भी परमपिता-संचालक स्वामी मुक्तिदाता परमतत्त्वम् रूप परमात्मा होते हैं। इससे स्पष्ट है कि ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले परमेश्वर-परमात्मा- भगवान्- भगवदवतार को क्या जाने कि क्या होता है? कैसा होता है ? ये लोग तो आत्मा-शिव तो आत्मा-शिव है जीव 'हम' के बारे में भी कुछ नहीं जानते ।
तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय वाले महानुभावों से मुझे यही कहना है कि....
'गीता ज्ञान श्रीकृष्ण जी ने नहीं दिया था बल्कि ज्योति विन्दु रूप परमपिता शिव परमात्मा ने दिया था' --यह उनका कथन बिल्कुल ही भ्रामक व गलत है । उनका यह भ्रम है कि शिव तो ज्योतिर्मय आत्मा है और श्रीकृष्ण जी शरीर मात्र । जबकि उन्हें यह अच्छी प्रकार से जान-समझ लेना चाहिए कि श्रीकृष्ण जी महाराज शरीर मात्र ही नहीं थे बल्कि ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा के भी पिता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान् रूप परमपिता रूप परमात्मा के ही पूर्णावतार थे, साक्षात् भगवदवतार थे-- परमपिता परमात्मा-परमेश्वर ही थे।
ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा उन परमतत्त्वम् रूप परमात्मा से ही उत्पन्न और उन्हीं के द्वारा संचालित होता रहता है । यह ही सत्य है । यह ही सत्य है।
प्र0 ब्र0 ईश्वरीय विश्वविद्यालय वालों का यह कथन कि गीता का ज्ञान परमपिता परमात्मा ने दिया है-- यह बात तो सही है । भ्रामकता और गलती यहाँ है कि वह परमात्मा ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा ही हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हँऽसो ज्योति रूप शिव-शक्ति-आत्मा-ईश्वर के भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा के ही साक्षात् पूर्णावतार रूप श्रीकृष्ण जी हैं । पूर्वोक्त मन्त्रों से यह निर्णय हो चुका है कि हँऽसो ज्योति रूप जीवात्मा-शिव-शक्ति लाइट या दिव्य ज्योति ही परमात्मा नहीं होता है अपितु इन सभी नामधारी शब्दों के भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् होता है, था और रहेगा भी। उन्हीं परमात्मा के पूर्णावतार श्रीकृष्ण जी महाराज ने गीता-ज्ञान दिये । नि:सन्देह यही सत्य है-- यही सही है--यही ही सही है ।
प्र0 ब्र0 ईश्वरीय विश्वविद्यालय की सारी बातें-जानकारियाँ-कथन एवं सारा का सारा लेखन-किताबें-पत्रिकाएं ही प्राय: पूर्णतया भ्रामकता एवं गलती से युक्त हैं । इसे सद्ग्रन्थीय आधार पर गलत प्रमाणित करने की चुनौती पूर्वक घोषणा कर रहा हूँ । नि:सन्देह यह संस्था अज्ञानतामूलक घोर आडम्बर-ढोंग वाली है । इस संस्था की सारी किताबें ही भ्रामक व गलत हैं तो प्रत्येक कथन को लिखना-बताना स्थानाभाव और विस्तृतता से बचने के क्रम में असम्भव है। कोई मिलकर जान-समझ सकता है । मेरे कथन की सच्चाई की जाँच भी कर सकता है। मेरे कथन को गलत ठहराने वाले के प्रति मैं सकल आश्रमों-शिष्यों सहित समर्पण कर दूँगा । मगर गलत प्रमाणित न कर पाने पर उन्हें भी पूर्णत: आश्रमों-सेवकों सहित समर्पण करना-रहना ही पडेग़ा । जब और जहाँ चाहें मैं पूर्णत: तैयार हूँ । साँच को ऑंच कहाँ ? सब भगवत् कृपा ।
''विचार-इच्छा-प्रयत्न अथवा पुरुषार्थ, अनुभव, स्मृति तथा संस्कार ये आत्मा के ही लक्षण है । आत्मा ही सत्य-असत्य का विचार करती, आनन्द के लिए इच्छा करती है । उसके लिए पुरुषार्थ करती है, फिर दु:ख-सुख या आनन्द की प्राप्ति का अनुभव आदि करती है । अत: मन और बुध्दि आत्मा से अलग नहीं, ये प्राकृतिक नहीं है, बल्कि स्वयं आत्मा ही की योग्यताएँ हैं ।'
(प्र0 ब्र0 ई0 वि0 का ईश्वरीय ज्ञान का 'साप्ताहिक पाठयक्रम पृष्ठ 25 )
यह उपर्युक्त कथन सरासर (पूर्णत:) गलत है-- नाजानकारी और नासमझदारीवश मिथ्याज्ञान का परिचायक है । सही यह है कि ये उपर्युक्त सारे लक्षण आत्मा के नहीं, बल्कि जीव के हैं, जीव के ही हैं। मन, बुध्दि, संस्कार, विचार, अनुभव, आनन्द से आदि ये सब जीव से ही सम्बन्धिात हैं--इनका आत्मा से या आत्मा का इनसे कोई मतलब नहीं । आत्मा तो निराकार-निर्विकार मन-बुध्दि- विचार- अनुभव-आनन्द से परे होती है। आत्मा-शिवशक्ति तो ज्योति रूप होती है-- ज्योति मात्र में ये सब लक्षण कल्पना के लिए भी नहीं हो सकते-- ऐसा कथन बिल्कुल ही अज्ञानता अथवा मिथ्याज्ञान का लक्षण है । हाँ ! ये सब लक्षण सूक्ष्म शरीर (सेप्टल बॉडी) रूप जीव- रूह-सेल्फ-स्व-अहं के हैं । विशेष जानकारी हेतु मुझसे मिल सकते हैं ।
'ईश्वरीय ज्ञान का साप्ताहिक पाठयक्रम' के दूसरे दिन में पृष्ठ संख्या 30-31-32 से उध्दृत् उदाहरणार्थ--
परमात्मा के बारे में अनेक मत क्यों ?
ब्रम्हाकुमारी:-
तो परमात्मा के बारे में अनेक मतों का होना यह सिध्द करता है कि लोग अपने आत्मा के पिता को नहीं जानते । तभी तो आज बहुत से लोग कहते हैं कि परमात्मा का कोई रूप ही नहीं है। आप किंचित् विचार कीजिए कि रूप के बिना भला कोई चीज हो कैसे सकती है ? परमात्मा के लिए तो लोग कहते है--''ऍंखिया प्रभु दर्शन की प्यासी' अथवा हे प्रभो? अपने दर्शन दे दो।'' अत: परमात्मा का कोई रूप ही नहीं है, तब तो परमात्मा से मिलन भी नहीं हो सकता? परन्तु सोचिए, क्या हम जिसे अपना परमपिता कहते हैं, उससे मिल भी नहीं सकते ? परमात्मा से जो इतना प्यार करते हैं, उसे इतना पुकारते हैं, उसके लिए इतनी साधनाएँ करते हैं, वे किसलिए ? जिसका कोई रूप ही नहीं है अर्थात् जो चीज ही नहीं है, उसके लिए कोशिश ही क्यों करते हैं ? स्पष्ट है कि परमात्मा का कोई रूप है अवश्य, परन्तु आज मनुष्य के पास ज्ञान-चक्षु के न होने के कारण वह उसे देख नहीं सकता ।
उन्हीं के अनुसार-- मान लीजिए, आप किसी मनुष्य से पूछते हैं कि तुम किस चीज को खोज रहे हो ? तो वह कहता है--''उस वस्तु का कोई रूप नहीं है।'' फिर आप पूछते हैं कि वह वस्तु कहाँ है, वह कैसी है और उसके गुण क्या हैं ? तो वह कहता है कि-- 'वह तो निर्गुण है' तो आप उसे तुरन्त कहेंगे कि-- 'फिर तुम ढूँढ क्या रहे हो, खाक् ? जिसका न नाम है, न रूप है, न गुण है, और न पहचान तो उसके पीछे तुम अपना माथा क्यों खराब कर रहे हो?'
क्या परमपिता परमात्मा का कोई रूप है ? यदि हाँ, तो कैसा
सभी लोग कहते हैं कि परमात्मा एक लाईट है, एक ज्योति अथवा एक नूर है परन्तु वे यह नहीं जानते कि उस लाइट का रूप क्या है? तो आज हम अपने अनुभव के आधार पर आप को यह बताना चाहते हैं जैसे आत्मा एक ज्योतिर्विन्दु है, वैसे ही आत्माओं का पिता अर्थात् परम-आत्मा भी ज्योति विन्दु ही है। हाँ ! आत्मा और परमात्मा के गुणों में अन्तर है । परमात्मा सदा एकरस, शान्ति का सागर, आनन्द का सागर और प्रेम का सागर है और जन्म-मरण तथा दु:ख-सुख से न्यारा है। परन्तु आत्मा जन्म-मरण से न्यारा तथा दु:ख-सुख के चक्कर में आती है । आप देखेंगे कि सभी धर्म वालों के यहाँ परमात्मा के इस ज्योतिर्मय रूप की यादगार किसी न किसी नाम से मौजूद है । ये उपर्युक्त मत प्र0 ब्र0 कु0 वालों के किताब से है ।
सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का मत
प्राय: ऐसा देखा जाता है कि सामान्यतया कोई व्यक्ति-उपदेशक अथवा धर्मोपदेशक भी दूसरे को राय-परामर्श-उपदेश आदि तो खूब देते हैं, मगर स्वयं अपने पर कम से कम अनिवार्यत: आवश्यक बातों पर भी ध्यान नहीं देते-- गौर नहीं करते हैं कि जो बात-उपदेश वे दूसरे को कर-दे रहे हैं कि ''परमात्मा का रूप होता है, मगर ज्ञान चक्षु नहीं होने के कारण वे परमपिता परमात्मा के रूप को नहीं देख पाते है'' तो मैं यह पूछूँ कि क्या प्र0ब्र0कु0ई0वि0 वालों के पास ज्ञान-चक्षु हैं ? यदि वे कहते हैं कि है-- तो बिल्कुल ही झूठ बोलते हैं, क्योंकि वे लोग (प्र0ब्र0कु0ई0वि0 वाले) यह भी नहीं जानते है कि--
1 . मन-बुध्दि-संस्कार को भी आत्मा से अभिन्न--आत्मा ही मानना उसकी घोर अज्ञानता है । सच्चाई यह है कि ये तीनों ही जीव से सम्बन्धित होता हैं, आत्मा से सम्बन्धित नहीं ।
2 . कार और ड्राइवर जैसे ही काया (शरीर) और आत्मा कहना भी अज्ञानता ही है क्योंकि कार रूप शरीर है तो ड्राइवर रूप आत्मा नहीं होती बल्कि जीव होता है । इस बात से स्पष्ट होता है कि उन्हें जीव के सम्बन्धा में भी जानकारी बिल्कुल ही नहीं है क्योंकि जीव के समस्त कार्य लक्षणों को वे लोग आत्मा का कार्य और लक्षण मानते कहते हैं जो सरासर झूठ-गलत और भ्रामक भी तो है
3 . उनके कथनानुसार आत्मा एक चेतन वस्तु है । आत्मा को चेतन इसी कारण कहा जाता है कि वह सोच-विचार कर सकती है, दु:ख-सुख का अनुभव कर सकती है और अच्छा या बुरा बनने का पुरुषार्थ अथवा कर्म कर सकती है। अत: आत्मा मन, बुध्दि और संस्कारों से अगल नहीं है ।
मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी के अनुसार ये उपर्युक्त सोच-विचार कर्म करना आदि लक्षण कार्य आत्मा के नहीं अपितु जीव के ही हैं । आत्मा तो निर्विकार-निर्दोष व सोच-विचार से बिल्कुल ही रहित होती है। सच्चाई यह है कि यह (प्र0ब्र0कु0ई0वि0) संस्था जितनी ही घोर अज्ञानी है, उतनी ही मिथ्या-ज्ञानाभिमानी भी। नि:सन्देह बार-बार ही कह रहा हूँ-- हजारों बार कह रहा हूँ कि यह संस्था घोर अज्ञानी और भ्रामकता की शिकार है जिसको परमात्मा के विषय में कोई कुछ भी जानकारी तो है ही नहीं, जीव के विषय में भी कोई भी जानकारी नहीं है, क्योंकि जीव की जानकारी होती तो जीव का ही सारा लक्षण-वर्णन आत्मा पर साट करके वर्णित नहीं करते। क्योंकि इसको इसमें 1 . परमात्मा, 2 . आत्मा, 3 . जीव, 4 . बुध्दि, 5 . मन, 6 . संस्कार, 7 . ज्ञान व ज्ञान चक्षु, 8 . योग व दिव्य दृष्टि, 9 . स्वाध्याय व सूक्ष्म दृष्टि, 10 . अवतार, 11 . 84 लाख योनिया, 12 . गीता ज्ञान दाता कौन? 13 . गीता ज्ञान क्या है ? 14 . क्या राम-कृष्ण वास्तव में पूर्णावतारी थे या देवता मात्र ? 15 . जन्म-मृत्यु-मुक्ति क्या है ? 16 . स्वर्ग-परमधाम क्या है ? 17. जीव एवं आत्मा (ईश्वर) और परमात्मा (परमेश्वर) के नाम-रूप- स्थान-लक्षण-जानकारी-दर्शन-प्राप्ति-पहचान- कार्य-मुक्ति- अमरता-जीवन की रहस्यात्मक बातें आदि-आदि--में से किसी की भी कोई जानकारी नहीं है, नहीं है! कदापि नहीं है !! इन उपर्युक्त के सम्बन्ध में उनकी किताबों में जो जानकारियाँ है, सरासर ही अज्ञानता मूलक भ्रामकता पर आधारित हैं और बिल्कुल ही मिथ्या है । गलत है । इस भ्रामकता और गलत-मिथ्यात्त्व को सद्ग्रन्थीय और आवश्यकता पड़ने पर प्रायौगिक (प्रैक्टिकली) आधार पर सत्प्रमाणों सहित प्रमाणित करने की चुनौतीपूर्ण घोषणा कर रहा हूँ । उन लोगों में क्षमता (जानकारी-ज्ञान) हो तो मेरी चुनौती को गलत प्रमाणित करने की चुनौती किसी खुले मंच से पत्रकारों की उपस्थिति में दें ।
यह प्र0 ब्र 0 कु0 ई0 वि0 संस्था घोर भगवद्रोही -- सत्यद्रोही संस्था है । ज्योति आत्मा-शिव के भी पिता जो बिल्कुल ही पृथक् और परमतत्त्वम् है, को ही नकार रही है और नकारने वाली सत्य विरोधी विष जनमानस में घोल-घोलवा रही है । सच्चाई यह है कि न तो मैं किसी का विराधी हूँ और न तो कोई मेरा दुश्मन ही है । जो बातें हो रही है ईमान से सत्य तथ्य पर आधारित है जो होना ही चाहिए । सब भगवत् कृपा।
तत्त्ववेत्ता परमपूज्य सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस
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