परमात्मा ना कण कण में ना घट घट में होता है बल्कि परमात्मा परम धाम का वासी होता है और अवतारी बेला में अवतारी के शरीर से भूमंडल पर क्रियाशील होता है l
कोई भी परिवारिक सांसारिक व्यक्ति मोक्ष नहीं पा सकता मोक्ष के लिए भगवत समर्पण शरणागति अनिवार्य है l
ज्ञान मोह को काटता है और मोक्षदाता परम प्रभु में साटता है वैराग्य आसक्ति में फंसने से बचाता है l
पहली शिक्षा, स्वाध्याय है दूसरा, तीसरा है योग अध्यात्म विधान तत्त्वज्ञान को चौथा जानो जिससे मिलता है खुदा–गॉड–भगवान l
परमेश्वर की प्राप्ति तभी होती है जब जिज्ञासु प्रबल श्रद्धा भाव से सर्वतोभावेन सदगुरुदेव जी के माध्यम से अपने को भगवान को पूर्णता अर्पित कर दे l
परमेश्वर नमक से लेकर परमधाम तक देता है किंतु है ईमान और संयम के साथ शरणागति को देखता है l
जो समर्पित शरणागत होकर ईमान–सच्चाई से भक्ति सेवा में रहेगा उसे यहीं पर परमेश्वर प्रमोशन दे देता और वह परमेश्वर की समीपता प्राप्त कर लेता है l
यदि आप मृत्यु क्षेत्र में बैठे हैं तो इससे निकलिए और अमरत्व के क्षेत्र में जुड़िए ऐसा कर पाने में आप तभी सफल हो सकेंगे जब आप धर्म से जुड़ेंगे l
शिक्षा का अर्थ प्रधान होना ही भ्रष्टाचार का मूल कारण है अतः शिक्षा में आमूल चूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है l
मिथ्यावादी विनाश को प्राप्त होता है और सत्यवादी लोक परलोक दोनों में उच्च स्थान प्राप्त करता है l
वेद धन कमाने का साधन नहीं है बल्कि वेद हमको हमारा जीवन, वेद हमको सृष्टि का रहस्य, वेद हमको शरीर, जीव, ईश्वर और परमेश्वर का रहस्य बताने वाला एक सदग्रंथ है l
मुक्ति–अमरता का साक्षात बोध नहीं हो तो भगवान कैसा ? बातचीत सहित साक्षात दर्शन रूप भगवत प्राप्ति नहीं हो तो ज्ञान कैसा ? और जब ऐसा ज्ञान ही नहीं मिला तो वह गुरु कैसा ?
अध्यात्मिक योगियों का संगम योग साधना की अवस्था में इंगला पिंगला जब सम होकर सुषुम्ना तीनों नाड़ियों का मिलन होता है तब आत्मा–ईश्वर–ब्रह्म की प्राप्ति से अपार शांति आनंद रूप चिदानंद की प्राप्ति होती है इससे भी मुक्ति–अमरता रूप परम शांति की प्राप्ति संभव नहीं है l
भगवत ज्ञानियों का संगम यानी प्रभु की भक्ति तथा प्रभु से मिला सत्संग के पश्चात श्रद्धा समर्पण शरणागत रूपी नौका में बैठकर प्रभु तत्त्व का साक्षात्कार ज्ञान प्राप्ति से ही मुक्ति अमृता रूप परमशांति संभव है l
तत्त्वज्ञान किसी का विरोधी नहीं होता बल्कि सबका सहयोगी रूप संरक्षक और बिना किसी प्रतिकार के ही पूरक होता है l
परमात्मा–परमेश्वर का भूमंडल पर भगवदावतार गोपनीयता के साथ साथ आश्चर्यमय भी इसलिए होता है क्योंकि पूरे युग में एक समय एक ही बार भूमंडल पर अवतार रहता है l
विज्ञान और अध्यात्म में भी अधूरा अपूर्ण मात्र तत्त्वज्ञान धर्म ही संपूर्ण तत्त्वज्ञान का जड़वाला भुजा विज्ञान, चेतन वाला भुजा अध्यात्म l
तत्त्वज्ञान ही पूर्ण ज्ञान आशेष ज्ञान या सत्य ज्ञान या भगवत ज्ञान भी होता है यह सभी पर्यायवाची हैं l
साधन से संसार मिलता है साधना से आत्मा ईश्वर ब्रह्म मिलता है और तत्त्वज्ञान जो साधन साधना दोनों का पिता संचालक होता है से भगवान मिलता है वह भी भगवत कृपा होगी तब l
सत्यता से क्यों हटते हो ढोंग पाखंड से क्यों सटते हो तुझे आडंबर ढोंग खा जाएंगे तब यम के यहां जा पछताएंगे l
ज्ञानी का जीवन माने पाप–कुकर्म से परे का जीवन, बुराई–विकृति से ऊपर परे का जीवन एक सच्चा, संतुष्टि प्रदान, संतोष प्रधान जीवन l
तत्त्व से जानना तत्त्व को देखना तत्त्व में प्रवेश होना संपूर्ण को संपूर्णतया जानना देखना ये भगवदावतार का परिचय पहचान होता है l
देव द्रोहिता छोड़ दो सोSहँ से मुख मोड़ लो जीव, ईश्वर और परमेश्वर को जान देख संबंध जोड़ लो l
अष्टांग योग का यथार्थत: जानकार केवल भगवदावतार ही होता है क्योंकि योग का अभीष्ट आत्मा–ईश्वर–ब्रह्म की उत्पत्ति कर्ता परमेश्वर होता है l
भक्तों को भगवान से हर पल क्षमा प्रार्थना करते रहना चाहिए कि प्रभु हमारा विवेक आपकी भक्ति सेवा में लगे और हम भगवदमय रहे l
जनमानस ने आपको धर्म भाव दिया उसके बदले आप जनमानस को धर्म की वास्तविक जानकारी नहीं दे सकते तो आप धर्म उपदेशक कैसे ?
हम को अपना हमार (शरीर संपत्ति) को परमेश्वर के चरण शरण में समर्पित कर परमात्मा के परमभाव को जानते देखते समझते तथा बोध करते हुए परमात्मामय होकर रहना चाहिए l
आदि में शब्द (वचन) था शब्द परमेश्वर के साथ था और शब्द ही परमेश्वर था l
संपूर्ण को संपूर्णतया जानकारी कराने वाला चार विधान है जिसको शिक्षा, स्वाध्याय, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान कहते हैं l
गुरु गुरु के लिए नहीं बल्कि भगवत प्राप्ति के लिए किया जाता है गुरु मात्र पोस्टमैन डाकिया की तरह होता है l
ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं ! बिना ज्ञान के मुक्ति कदापि संभव नहीं है ज्ञान खिलता है वैराग्य से ज्ञान ठहरता है वैराग्य से l
कामना के उत्पन्न होने का कारण शरीरस्थ जीव को संपूर्णतत्व से गिरकर अभावग्रस्त होना ही है l
त्याज्य को त्याग कर धारण करने योग्य परमात्मा को धारण कर अपने जीवन को उसमें स्थित करना ही धर्म है l
कर्म और भोग के बीच का जीवन जहां का मालिकान माया के हाथ में होता है ऐसे क्षेत्र में रहकर मुक्ति अमरता कदापि संभव ही नहीं है l
धर्म और मोक्ष के वाला जीवन जहां का मालिकान पूर्णतया भगवान के हाथ में है इसी जीवन में ही मुक्ति अमरता रूप मोक्ष संभव है l
संपूर्ण शंकाओं का समाधान केवल भगवदावतार ही कर सकता है दूसरा कोई नहीं l
जीव का आत्मामय होने रहने वाला क्रियात्मक पद्धति को ही अध्यात्म विद्या–परा विद्या कहते हैं l
योग–अध्यात्म के लिए शारीरिक एवं मानसिक शुद्धिकरण या पवित्रीकरण अनिवार्य है l
तन, मन, धन तीनों का भगवान के चरण शरण में समर्पित शरणागत करके निष्कपट भाव से भक्ति सेवा में लगा सेवक भगवान का अत्यंत प्रिय होता है l
सत्य ज्ञान के बगैर असत्य सत्य का यथार्थ ज्ञान होना कठिन ही नहीं अपितु असंभव ही होता है l
आत्मा एक आत्म ज्योति है तो परमात्मा आत्म ज्योति रूप आत्मा का उद्गम स्रोत तथा विलय कर्ता रूप है l
धर्म–धर्मात्मा–धरती रक्षा यह धरती का सबसे सर्वोत्तम कार्य है जिसको संपादित करने स्वयं भगवान अवतरित होते हैं l
धर्म–धर्मात्मा–धरती, सत्य–धर्म रक्षक को ही मुक्ति–अमरता और सर्वोत्तम यश–कीर्ति की प्राप्ति होती है l
भगवान अवतार रूप सद्गुरु के तत्त्वज्ञान को जान देख प्राप्त करके अपने जीवन को पूर्णता समर्पित शरणागत कर उनकी चरण रज को अपने माथे (ललाट) पर लगाना ही वास्तविक टीका कहलाता है l
परिवारिक पैसा और धर्म–मोक्ष–भगवान यह दोनों एक साथ कदापि संभव नहीं है जिसको परिवार, पैसा चाहिए उसको भगवान कदापि नहीं मिल सकता l
शैतान रूप अहंकार को किसी भी तरह ठोकर मार–मार कर जगा–जगा कर समाप्त करना ही संत सद्गुरु का एकमात्र लक्ष्य कार्य होता है l
भगवत कृपा होता ही उसी पर है जो परमेश्वर के सिवाय कुछ भी और किसी को भी नहीं चाहता तत्त्वज्ञान उसे तभी मिल पाता है l
मानव जीवन को पाकर के यदि भगवान नहीं पाए यदि मुक्ति–अमरता का साक्षात बोल नहीं पाए तो जीवन की अन्य सारी उपलब्धियां व्यर्थ हैं l
अपने सदगुरु के रीति-रिवाजों परंपराओं की रक्षा करना कायम रखना ही शिष्य का प्रमुख कर्तव्य होता है l
धर्म विषयक जिज्ञासाओं का बोधगम्य में समाधान न पाने से एक सच्चा खोजी प्रायः नास्तिक हो जाता है नास्तिकता की समाप्ति तत्त्वज्ञान में है l
भगवत लीला को अनन्य प्रेमी, अनन्य भगवत–सेवक और अनन्य भगवत–भक्त मात्र ही जान समझ देख पहचान पाते हैं l
सच्चा सद्गुरु अपने शिष्य को कभी नौकरी पेशा में रहने नहीं देता है बल्कि तन, मन, धन संपूर्ण का समर्पण कराकर धर्म धर्मात्मा धरती की रक्षार्थ भगवत भक्ति सेवा में लगाता है l
युवक-युवतियों आगे आओ आडंबर–ढोंग–पाखंड मिटाओ अपने को सत पुरुष बनाओ l
परमेश्वर–खुदा–गॉड ना तो कण-कण में और ना ही किसी के अंदर ही रहता है वह तो परमधाम–बिहिस्त–पैराडाइज का वासी है l
तत्त्वज्ञान ही मानव जीवन का लक्ष्य मंजिल है तत्त्वज्ञान में ही मुक्ति अमरता का बोध है l
सत्संग वह विधान है जिसमें तत्त्वज्ञान मिलता है तत्त्वज्ञान में साक्षात भगवान मिलता है और वह भगवान मुक्ति अमरता का बोध कराता है l
स्वार्थ पाप का जड़ है परोपकार पुण्य है तो भगवान का बनकर रहना चलना परमार्थ l
सत्संग के बगैर भगवत प्राप्ति का कोई दूसरा विधान है ही नहीं जब भी भगवान मिलेगा तत्वत: मिलेगा सत्संग के पश्चात समर्पण शरणागत के पश्चात ही मिलेगा l
सद्गुरु पूरे ब्रह्मांड में एक मात्र एक ही होता है क्योंकि वह परमात्मा –परमेश्वर –परमब्रम्ह –खुदा –गॉड –भगवान का पूर्ण अवतार होता है योग साधना वाले गुरु कभी भी सद्गुरु नहीं होते तत्त्वज्ञान दाता ही सद्गुरु होता है l
पतनकारी भ्रामक और मिथ्या तथ्यों को उजागर करना निंदा या शिकायत करना नहीं अपितु समाज को सजग सावधान करते हुए पतन बिना से बचाना है l
मूसा अल्लाहताला के प्रिय पैगंबर थे जिन्होंने अल्लाहताला का संदेश पैगाम यहूदियों को दिया था l
अल्लाहताला का आदेश काटने का मतलब बिहिस्त के बाग अमरलोक से पतन मृत्यु लोक की प्राप्ति l
महावीर, बुद्ध, यीशु और मोहम्मद साहब परमात्मा–परमेश्वर के संदेश वाहक (अंशा अवतारी) थे परमात्मा परमेश्वर नहीं l
त्याग और समर्पण के बगैर अध्यात्म और तत्त्वज्ञान के सफलता की कल्पना करना भी घोर अज्ञानता एवं मूड़ता का सूचक और परिचायक है l
जनमानस को ये बात जान लेना चाहिए कि ब्रह्मा ना तो कभी अवतार रहे हैं ना है और ना कभी होंगे फिर ब्रह्मा नाम से भगवदावतार की घोषणा करना समाज को दिग्भ्रमित करना नहीं तो और क्या है ?
दुनिया का एक भी ऐसा सदग्रंथ नहीं है जो पूर्णत: सत्य और पूर्णत: असत्य हो l
अहम् ब्रह्मास्मि से तात्पर्य मैं ब्रह्म से है यह लोग जीव को ही आत्मा या ब्रह्म मानने कहने तथा उसी का उपदेश भी करने लगते हैं ये अहंकारी व्यक्ति होते हैं l
खुदा–गॉड–भगवान कोई यंत्र–मंत्र–तंत्र तो है ही नहीं वह अहम् ब्रह्मास्मि भी नहीं है l
तत्त्वज्ञान रूप भगवत ज्ञान पाने के लिए हजारों मनुष्य में कोई एक ही यत्न करता है और उन यत्न करने वाले जिज्ञासुओ में भी कोई एक बिरला ही भगवत प्राप्त होकर भक्ति सेवा में उतरता है l
तत्त्वज्ञान दाता सद्गुरु के पास ही अध्यात्म का संपूर्ण रहस्य सहित सृष्टि की संपूर्णतया जानकारी होती है l
मानव जीवन की सफलता रोटी कपड़ा मकान रूपी भोग मात्र के पीछे दौड़ने में नहीं ! अपितु भगवत प्राप्ति सहित मोक्ष प्राप्ति में है l
खुदा गॉड भगवान द्वारा तथा उसके निर्देशन या आज्ञा में ही होने वाले संपूर्ण कार्य ही सत्य ही होते हैं क्योंकि परमात्मा ही एकमात्र परम सत्य होता है l
पूर्ति कीर्ति मुक्ति - तीनों वाला होने रहने चलने में ही मानव जीवन की सार्थकता है जो भगवत शरणागत हुए बगैर संभव ही नहीं l
परमेश्वर के शरणागत होने रहने पर लोक और परलोक दोनों का निर्वाह बहुत ही सहजतापूर्वक हो जाता है लोग लाभ परलोक निबाहु परमेश्वर वालों को ही तो मिलता है l
84 लाख योनियों चार भागों में है जड़ज, उदभीज, अंडज और पिंडज l
घर परिवार संसार को छोड़कर भगवान के शरण में आने से किसी की भी कभी भी कोई मर्यादा नहीं गिरती अपितु सदा सर्वदा बढ़ती ही रहती है l
परमात्मा परमेश्वर भगवान से उत्पन्न ब्रह्म ज्योति ही आत्मा ईश्वर ब्रह्म शिव है l
आत्मा ईश्वर ब्रह्म शक्ति शिव का सर्व प्रथम खोजकर्ता शंकर जी हैं इसलिए शंकर जी शिव जी के नाम से भी जाने जाते हैं l
धर्म पथ ज्ञान मार्ग में जितनी संघर्ष और कठिनाइयां हैं उतना ही सर्वोत्तम उपलब्धि भी है l
भगवदावतार रूप सद्गुरु का आदेश पालन ही भक्त सेवकों की भक्ति सेवा है l
तत्त्वज्ञान भगवान का परिचय पहचान होता है इसलिए उसका दाता केवल वही परमात्मा होता है l
सहस्त्रों यत्नशील सिद्ध पुरुषों में कोई कोई ही तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर सकता है l
परिवारिक जीवन जीव के लिए मीठा जहर और ज्ञानमय जीवन परम शांति और परमानंद सहित मुक्ति अमरता दायक होता है l
वास्तविक सत्य इतना आसान नहीं कि जो चाहे वही जना दिखा दे इसके लिए मात्र भगवदावतारी (सद्गुरु) ही सक्षम होता है |
स्वार्थ और परमार्थ दो शब्द हैं स्वार्थ निंदनीय त्याज्य है तो परमार्थ बंदनीय ग्राहय है परिवार ही स्वार्थ का मूल है जहां स्वार्थ फलता–फूलता है परमेश्वर का क्षेत्र (आश्रम) ही पारमार्थिक क्षेत्र है जहां परमार्थ फलता–फूलता है |
मुसल्लम ईमान से दीन की राह में जान व माल सहित कुर्बान होने के लिए हमेशा तैयार रहें वही सच्चा मुसलमान है |
हे प्रभु आपके चरणो में कोटिश: कोटिश: प्रणाम प्रार्थना है कि अपने सेवक जनों को अनुशासित शरणागत बनाए रखें |
ॐ और सोऽहँ परमात्मा तो है ही नहीं विशुद्धता; आत्मा भी नहीं है यह तो क्रमशः परमात्मा के पौत्र और पुत्र मात्र ही हैं l
भगवदावतारी परम प्रभु का संदेश सुनते ही जीव का पहला कर्तव्य परम प्रभु के चरण शरण में जाना ही होता है l
अधूरा–अक्षम गुरु घातक और विनाशक गुरु होता है सक्षम और पूरा (सच्चा) गुरु तो मुक्ति–अमरता का साक्षात बोध दाता होता है l
असत्य–ममता–मोह रूपी अंधकार, मृत्यु रूपी भव क्षेत्र त्यागकर सत्य–दिव्य ज्योति–ईश्वर को तथा अमरता के क्षेत्र–भगवत क्षेत्र को ग्रहण करने में ही जीवन की सार्थकता है l
शरीर का सबसे पहले और सबसे बड़ा हित शुभचिंतक जीव ही है जीव के बाद ही घर–परिवार–संसार आपका हितदाई है l
सभी पंथ–संप्रदाय वाले कहते हैं कि खुदा–गॉड–भगवान एक है फिर यह अनेक संप्रदाय, वर्ग भेदभाव क्यों ? सभी एक धर्म–एक भगवान–एक खुदा गॉड का क्यों नहीं ?
ग्रंथ किताब पढ़ रट करके जो सीखता है उसको ज्ञानी नहीं बल्कि विद्वान कहते हैं परमप्रभु–परमेश्वर–भगवान का तत्त्व दर्शन, परख–पहचान करने वाले भगवत कृपा पात्र को मात्र ही ज्ञानी कहते हैं l
कोई भी मूर्ति भगवान या परमात्मा नहीं हो सकता बल्कि भगवदावतार के प्रतीक मात्र हैं l
कोई भी मूर्ति–फोटो, मिट्टी, पत्थर, कागज जैसे जड़ पदार्थ से ही बनी होती है इसलिए वह जड़ पदार्थ ही होती है l
सत्य का परिचय–पहचान धन–जन, अट्टालिका, आश्रम की मात्रा संख्या से नहीं अपितु भगवदावतारी से प्राप्त तत्त्वज्ञान से होता है l
वेद की ऋचाएं पढ़ रट के परमेश्वर की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है समस्त वेद उन परमात्मा की सेवा करने वाले उन्ही के अंग भूत पार्षद हैं l
शिक्षा, स्वाध्याय, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान इन चारों की सरहस्य जानकारी केवल सद्गुरु भगवदावतारी से ही प्राप्त होती है अन्य किसी से नहीं l
धर्म का चोला पहनकर धन उपार्जन करना ऐसो आराम करना धर्म नहीं है दोष–रहित, सत्य–प्रधान, मुक्ति–अमरता युक्त वाला सर्वोच्च जीवन विधान ही धर्म है l
सोऽहँ परमात्मा तो है ही नहीं विशुद्धता :आत्मा भी नहीं है यह तो पतनमुखी क्रिया है l
जब–जब सृष्टि के अधिकारीगण सृष्टि की व्यवस्था संभालने में असमर्थ होते हैं तब-तब परमप्रभु भूमंडल पर आते हैं जिन्हें अवतारी कहा जाता है l
जिसको पैसा परिवार चाहिए उसको कभी परमेश्वर तथा उससे मिलने वाला लाभ नहीं मिल सकता l
विद्यातत्त्वम पद्धति को जनाने–दिखाने वाला भगवदावतारी के सिवाय और कोई भी नहीं हो सकता l
वेद का अर्थ पहले तो शुद्ध रूप से होता है जानना, जानकारी व्यापक रूप से समाहित हो जिसमें वह एक वेद सदग्रंथ है l
परमेश्वर को ज्योतिर्बिंदु रूप बताना अज्ञान भ्रम और जनमानस को भरमाना भटकाना है क्योंकि परमेश्वर ज्योतिर्मय शिव का भी उत्पत्ति व संचालन कर्ता होता है l
पाप–कुकर्म और झूठ–फरेब में अभ्यस्त व्यक्ति भोग–व्यसन की लालसा में परमेश्वर के क्षेत्र में ठहरने से कतराता है l
सद्गुरु कभी भी किसी को भी परिवारिक भोग व्यसन की स्वीकृति नहीं देता क्योंकि वह मोक्ष (मुक्ति–अमरता) दाता होता है l
योग ही ज्ञान नहीं ॐ –सोऽहँ भगवान नहीं वास्तविक ज्ञान तत्त्वज्ञान है अलम गॉड ही खुदा गॉड भगवान है l
मानव जीवन का उद्देश्य गुरु खोजना पाना या गुरु भक्ति करना मात्र नहीं है खोजना पाना तो भगवान और मोक्ष है l
एक घड़ी, आध घड़ी का सत्संग संत सद्गुरु का संगत कोटि अपराधों को मिटाने वाला होता है l
खुदा–गॉड–भगवान कोई यंत्र–मंत्र–तंत्र तो है ही नहीं वह अहम् ब्रह्मास्मि भी नहीं है l
परमात्मा के संकल्प शक्ति से ब्रह्म शक्ति की उत्पत्ति होती है और ब्रह्म शक्ति से ॐ की उत्पत्ति होती है l
परमात्मा–परमेश्वर–खुदा–गॉड–भगवान को जो तत्त्वत: जानेगा–देखेगा वह तत्काल ही परमतत्त्वम में प्रवेश करता है l
इंगला पिंगला और सुषुम्ना- तीनों प्रसिद्ध प्राप्त नाड़ियों का मिलन ही योगी महात्माओं के लिए संगम है l
जहां पर दो नदियां मिलकर तीसरा रूप लेकर बहती हैं तो वह मिलन स्थल ही संगम कहलाता है l
संपूर्ण ब्रह्मांड के किसी भी विषय–वस्तु अथवा शक्ति सत्ता की संपूर्ण रहस्यत्मक जानकारी ज्ञान में समाहित होता है इसलिए संपूर्ण की रहस्यात्मक जानकारी कराने वाला केवल तत्त्वज्ञान दाता भगवदावतार ही होता है l
शरीर में स्थित जीव को तथा जीव के अपने असली पिता परमेश्वर को जाने देखें तथा उसके प्रति समर्पित–शरणागत हुए बगैर मुक्ति अमरता संभव ही नहीं है l
विद्यातत्त्वम या परमविद्या या तत्त्वज्ञान पद्धति एकमात्र परमात्मा के अवतार रूप अवतारी सत्पुरुष हेतु ही सुरक्षित रहता है l
जो संपूर्ण मैं–मैं, तू–तू सहित सृष्टि के आदि अंत को जनाता–दिखाता है वास्तव में वही सच्चा संत होता है l
भौतिक संसाधन तो कभी भी मोक्ष का कारण नहीं हो सकता बल्कि संसार में फंसाने का मूल कारण है इसलिए गुरु की पहचान भौतिक संसाधन से नहीं करना चाहिए l
लोहे की हथकड़ी तो खुल जाती है परंतु मोह–ममता वाली हथकड़ी बिना तत्त्वज्ञान के करोड़ों जन्मों तक खुलनी आसान नहीं है l
परमेश्वर की विशेष कृपा से ही अधम से अधम जीव भी महापुरुष, ऋषि, ब्रह्मऋषि बनकर सर्वोच्च यश–कीर्ति सहित मुक्ति–अमरता को भी पाता है l
जप, तप, व्रत, नियम, उपवास, यज्ञ, तीर्थ, स्नान, दान, हवन, मूर्तिपूजा, सदग्रंथों के पाठ, योग तथा मुद्राओं आदि की साधना से मोक्ष नहीं मिलता मोक्ष तो एक मात्र तत्त्वज्ञान से ही प्राप्त होता है l
बार–बार के आवागमन के दु: सह यातना से छुटकारा पाने के लिए भगवद समर्पित–शरणागत होना रहना चलना अनिवार्य है l
खुदा–गॉड–भगवान यहोवा के पीछे रहने वाले लोग अलग–अलग संप्रदाय कायम नहीं कर सकते क्योंकि वह है ही एकमात्र एक ही l
परमात्मा के जिज्ञासु को सदा ही आगे की सत्यता को अपनाते रहना चाहिए तभी वह परमात्मा तक पहुंच सकता है l
परमात्मा–परमेश्वर–परमब्रह्म को कोई नहीं जान पाता जब तक कि वह खुद भूमंडल पर अवतरित होकर अपना परिचय पहचान न करावे l
किसी भी विषय वस्तु से लाभ लेने के लिए उसके बारे में तीन चीजें जानना अनिवार्य है क्या है? क्यों है? और उसका उपयोग हम किस तरह करें कि उसका सही समुचित लाभ मिले ?
तत्त्वज्ञान भगवान का परिचय पहचान होता है इसलिए उसका दाता केवल परमात्मा ही होता है l
परिवारिक ममता मोह को ज्ञान रूपी तलवार से काटना और परम प्रभु से साटना ही सद्गुरु का एकमात्र कर्तव्य होता है l
ब्रह्मा–इंद्र–शंकर आदि लोकपाल भी परमात्मा–परमेश्वर–परमब्रह्म को नहीं जान पाते हैं l
भगवत कृपा उसी पर होती है जो परमेश्वर के बिना रह नहीं सकता ऐसे ही जिज्ञासु पर वे कृपा करके अपना तत्त्वरूप प्रकट कर देते हैं l
संत ज्ञानेश्वर जी के अनुसार दोष रहित, सत्य प्रधान, उन्मुक्तता, मुक्ति और अमरता से युक्त भरा–पूरा जीवन ही धर्म है l
सत्य सदा सर्वदा ही सर्वोच्च–सर्वश्रेष्ठ–सर्वोत्कृष्ट तथा एक रूप और अपरिवर्तनशील होता है l
यह अनमोल मानव शरीर परमेश्वर प्राप्ति के लिए ही परमेश्वर ने दी है अतः इसे भोग व्यसन में मत फसाओ l
जीव का आत्मा से मिलना ही योग अध्यात्म कहलाता है l
योग ही ज्ञान नहीं ॐ – सोऽहँ भी भगवान नहीं वास्तविक ज्ञान तत्त्वज्ञान है परमतत्त्वम रूप आत्मतत्त्वम ही सच्चा भगवान है l
परमेश्वर का स्मरण करने के लिए भी तो परमेश्वर को जानना देखना अनिवार्य है यदि परमेश्वर को जाने ही नहीं तो परमेश्वर का स्मरण कैसे करेंगे l
हम शरीर नहीं बल्कि शरीर हमारी है हम तो शरीर रूपी गाड़ी का एक चालक मात्र हैं जो ईश्वर द्वारा परिचालित एवं परमेश्वर द्वारा संचालित है होता है l
शरीर से संसार तक मूलक या शरीर–संसार प्रधान गतिविधि को कर्म क्षेत्र कहते हैं तो जीव से परमात्मा तक परमात्मा प्रधान गतिविधि को धर्म क्षेत्र कहते हैं l
सारे दुख सुख की अनुभूतियां हम जीव को ही होती हैं नरक की यातनाएं भी जीव को झेलना पड़ता है l
जब आप पूर्णता अपने को भगवान को सौंप देंगे तो भगवान भी पूर्णता आपकी रक्षा व्यवस्था करेंगे l
जीव के उद्धार और जीवन के सुधार का सर्वोत्तम विधान ही वास्तव में सच्चा धर्म है l
धर्म–अर्थ–काम और मोक्ष के बीच अपने जीवन को रखा है उसी को पुरुषार्थी कहते हैं l
विज्ञान अंतिम सीमा चरम तक जाकर के जहां समाप्त होता है वहां से अध्यात्म शुरू होता है l
यदि आप ज्ञान का लाभ प्राप्त करना चाहते हैं तो ईमान–सच्चाई–संयम–सेवा अपनाना परम आवश्यक है इन चारों के बिना ज्ञान का लाभ असंभव है l
अभ्यांतर कुंभक शक्ति को ही संगठित रूप स्थिरता प्रदान करने वाली क्रिया प्रक्रिया है l
भोगी–व्यसनी–अज्ञानी मूढ़ हैं लोग जो तत्त्वज्ञानदाता सदगुरु को साधारण मनुष्य समझते हैं, ज्ञानी–वैरागीजन तो परम ब्रह्म परमेश्वर के साक्षात पूर्ण अवतार के रूप में उन्हें जानते और देखते हैं l
समर्पण का मतलब परमात्मा परमेश्वर को कुछ देना नहीं होता है अपने बल्कि परमात्मा परमेश्वर का बनकर संपूर्ण का संपूर्णतया पाना होता है l
परमेश्वर ज्योतियों का भी पिता है क्योंकि संपूर्ण ज्योतियां उसी से प्रकट और उसी में विलय हुआ करती हैं l
नार–पूरइन काटने के पश्चात शिशु को माता–पिता आदि द्वारा वाह्य आडंबर में फंसाकर अंतर्मुखी से बहिर्मुखी बना दिया जाता है यह शिशु के प्रति सबसे बड़ा घात है l
भोगी व्यसनी का विनाश हो जाता है और ज्ञानी प्रभु सेवक यश कीर्ति और मोक्ष भी पाता है l
सत्य पुरुषत्व (मुक्ति–अमरता) को पाने में एकमात्र परिवार ही बाधक और विनाशक होता है किसे अपनाएं और न अपनाएं यह आप पर है l
महापुरुष–सत्पुरुष बनने होने में कामिनी कांचन (शरीर, वस्तु) बाधक होता है जबकि साहस, निष्ठा एवं समर्पण– शरणागति सहायक होता है l
परमेश्वर संपूर्ण ब्रह्मांड से बाहर होता है इसलिए परमेश्वर के यहां काल और कर्म नहीं होता है काल कर्म तो माया के क्षेत्र में होता है l
कोई भी क्या है और कितने में था या है इसकी साक्षात जानकारी देने वाला ज्ञान ही तो तत्वज्ञान है जो एकमात्र भगवद अवतारी सद्गुरु से ही प्राप्त होता है l
जीव, ईश्वर व परमेश्वर के भेद को न जानने वाले तीनों को एक ही या दो ही बताते हैं यह उनकी घोर अज्ञानता है l
तत्त्वज्ञान दाता सद्गुरु अपने शिष्य को विज्ञान सहित तत्वज्ञान को संपूर्णता सहित देता है फिर जानना और पाना कुछ भी शेष नहीं रह जाता l
कर्म का लक्ष्य भोग, योग का लक्ष्य ब्रह्ममय समाधि अवस्था है और धर्म का लक्ष्य मोक्ष परमधाम है l
परमेश्वर के शरणागत हो करके अपने मानव जीवन को सफल बनाइए l
नमक से लेकर के अमरलोक तक की पूर्ति (गारंटी) देने वाला एकमेव एक परमेश्वर ही है l
सोऽहँ तो अहंकार बढ़ाने और पतन को ले जाने वाली एक सहज स्थिति ही है यह जब आत्मा ही नहीं है तो फिर परमात्मा कैसा?
विद्यातत्त्वम पद्धति विद्यार्थी को भोग( जुटाना–खाना–पखाना) नहीं बल्कि जीव को मोक्ष (मुक्ति–अमरता) और जीवन को यश–कीर्ति देता है l
यदि आपने परमतत्त्व को जाना नहीं तो सारा शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है यदि आपने उस परमतत्त्व को जान लिया तो भी शास्त्र अध्ययन व्यर्थ है |
संसार, शरीर व जीव तो अनादि है ही नहीं आत्मा भी अनादि नहीं है अनादि तो एकमात्र परमात्मा ही है |
संसार के विषय वस्तुओं से वैराग्य और प्रभु चरणों में अनन्य प्रेम अनुराग |
युवा बंधुओं अपना समय मत गवाओ को अपने को महापुरुष बनाओ साथ ही साथ अपने माता-पिता के उद्धार तथा कल्याण का माध्यम बनो |
पतित पावन उद्धारक केवल परमात्मा परमेश्वर भगवान का अवतार होता है जिसके शरण में आने वालो को वह संपूर्ण पाप भव के बंधन काटकर मुक्ति अमरता देता है |
कुरान की आयतों को जानने समझने के लिए जिस्मानी चश्मा रूहानी चश्मा नूरानी चश्मा और मेहरबानी चश्मा चाहिए |
संशय से युक्त श्रद्धा से रहित पुरुष के लिए ना लोक का ही सुख है ना परलोक का ही जो जन्म मृत्यु रूप संसार चक्र में भ्रमण करता रहता है |
गायत्री कोई देवी तो है ही नहीं कोई मंत्र भी नहीं बल्कि मात्र एक छंद है |
जीवात्मा और परमात्मा दोनों एकदम प्रथक प्रथक हैं परमात्मा सभी जीवात्मा को कर्म और भोग के अनुसार सृष्टि चक्र में घुमाता नचाता है |
संसार - शरीर प्रधान रहो पशु बनो, जीव प्रधान रहो पुरुष बनो, आत्मा प्रधान रहो महापुरुष बनो, परमात्मा परमेश्वर प्रधान रहो सत्पुरुष बनो |
भगवदावतार की विद्यातत्त्वम पद्धति से ही समाज का सर्वांगीण विकास संभव है |
वर्तमान के उद्देश विहीन शिक्षा ने मानव जीवन को विकृत कर दिया है वर्तमान के शिक्षा में परिवर्तन करके विद्यातत्त्वम पद्धति अनिवार्य है |
संसार, शरीर, जीव, ईश्वर और परमेश्वर पांचों की यथार्थता ठीक-ठीक परिचय पहचान जिससे प्राप्त होता है उसे ही सद्गुरु कहते हैं |
अध्यात्म में इतनी क्षमता सामर्थ नहीं है कि वह परमेश्वरीय रहस्यों को दिखा या बता जना ही सके |
गुरु और गुरु भक्ति का अभीष्ट भगवत प्राप्ति और मुक्ति अमरता का बोध रूप अद्वैत तत्व बोध के लिए मात्र ही होनी चाहिए ना कि इससे बिछड़े रहने के लिए |
जीवन का चरम और परम लक्ष्य रूप मुक्ति अमरता के साक्षात बोध को प्राप्त करते हुए अपने जीवन को सफल सार्थक बना लेना ही है |
तत्वज्ञान या विद्यातत्त्वम ना तो कर्मकांड ही होता है और ना योग साधना वाला अध्यात्म ही बल्कि दोनों का ही उत्पत्तिकर्ता संचालनकर्ता विलय रूप नियंत्रण कर्ता के साथ ही साथ सभी के कमियों का पूरक होता है |
कर्म कांडी व्यक्ति और वस्तु या शरीर और संपत्ति प्रधान होते हैं जो जड़ तथा नाशवान होते हुए वस्तुतः अस्तित्व हीन होता है |
इंद्रियों और विषयों की जानकारी करते हुए उसके गुण दोष क्या उसके प्रभाव को यथार्थता समझ ले तो ना ही विषय का भय ही होता और ना ही इंद्रियों पर रोक लगाने की आवश्यकता ही पड़ती है |
जिस प्रकार जीव के बगैर शरीर का कोई अस्तित्व और महत्व नहीं रहता है ठीक उसी प्रकार आत्मा के बगैर जीव का भी अस्तित्व और महत्त्व समाप्त हो जाता है |
परमेश्वर के यहां सुपर कंप्यूटर से भी आगे सुप्रीम कंप्यूटर होता है |
जनेऊ यानी जनाने वाला जिसको देखने मात्र से लोग जान जाएं की ये ब्रह्मचारी है |
वीरासन यदि भोजन के पश्चात किया जाए तो पेट संबंधी गड़बड़ी होता तो है ही नहीं यदि पहले से होगा भी तो दूर होते देर नहीं लगेगा |
आसन शारीरिक गठन मात्र के लिए ही नहीं अपितु योग साधना की एक अनिवार्य कड़ी है |
मनुष्य योनि के अतिरिक्त सभी योनियों को मात्र कार्यकारी शक्ति उपलब्ध हुई है |
अपने अस्तित्व कर्तव्य और मंजिल को जाने बिना मानव जीवन उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार बिना दूध के गाय को पालना |
अध्यात्म या योग के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित नारद, ब्रह्मा और शंकर जी आदि को भी भगवान विष्णु, राम और कृष्ण की भक्ति करनी पड़ती है |
समाज सुधार एवं समाज उद्धार हेतु विद्यातत्त्वम की मात्र उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि शरीर को क्रियाशील होने हेतु जीवात्मा की |
पुरातत्व विभाग को विद्यातत्त्वम का पर्याय मानना जड़ता एवं मूढ़ता के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा |
भगवान का कृपा पात्र जो भगवान को तथा उनके प्रभाव को तत्त्वत: जान लेता है वास्तव में वह भी भगवदमय ही हो जाएगा |
भगवान की विचित्र लीला को खुद भगवान के सिवाय और कोई नहीं जानता |
भगवदावतार के सिवाय यथार्थता भगवान को जानता ही कौन है कि भगवान के संबंध में सत्संग करेगा ?
धर्म उन्मुक्तता अमरता से युक्त एक अनिवार्य सच्चा जीवन विधान सर्वोत्तम जीवन विधान होता है |
हम संसार हैं कि शरीर हैं कि जीव है कि ईश्वर हैं कि शिव हैं कि भगवान हैं सबसे पहले आप हम सब की आवश्यकता है यह जानने की आखिर इसमें हम क्या हैं?
भक्ति सेवा पूजा आराधना का एकमात्र अधिकारी भगवत अवतार सद्गुरु ही है जो परमतत्व का साक्षात्कार कराता है |
युवा बंधुओं आगे आओ अपने को सतपुरुष बनाओ धरती धर्म के रक्षा हेतु अब सत्य धर्म ही अपनाओ |
सर्वतभावेन भगवत समर्पित शरणागत रहने चलने में ही व्यक्ति पूर्ति कीर्ति और मुक्ति तीनों वाला हो जाता है |
मंत्रों की नाजानकारी उतनी बुरी नहीं होती जितना बुरा की ना जानकारी होते हुए भी अपने को उसका जानकार बनना |
जब तक आत्मा और परमात्मा का एकत्व बोध नहीं होगा तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती |
एक परम ब्रह्म परमेश्वर ही ऐसा परम सत्ता शक्ति है जो मोक्ष दे सकता है |
तत्वज्ञान परमात्मा के द्वारा ही तथा परमात्मा के साथ ही समय-समय पर प्रकट होता है |
परम ब्रह्म परमेश्वर अल्लाहताला गॉड शरीर नहीं है अपितु एक सर्वोच्च सत्ता शक्ति है जो अविनाशी है अजन्मा है |
दोष रहित - सत्यप्रधान मुक्ति - अमरता से युक्त सर्वोत्तम जीवन विधान ही " धर्म " है।
ॐ-सो हँ- हँ सो- शिव ज्योति भी भगवान नहीं , भगवान " परमतत्त्वम " है। स्वाध्याय, अध्यात्म , ही ज्ञान नहीं , ज्ञान " तत्त्वज्ञान " है।।
सोs हँ परमात्मा तो है ही नहीं; विशुद्धत: आत्मा भी नहीं है ; ये पतनोमुखी क्रिया है |
गायत्री कोई देवी तो है ही नहीं , गायत्री कोई मन्त्र भी नहीं है | गायत्री तो मात्र एक छन्द है |
परमब्रम्ह से शब्दब्रह्म का ज्ञान मिलता है और शब्दब्रम्ह से परमब्रम्ह का पहचान होता है |
जीव ही आत्मा नहीं , आत्मा ही परमात्मा नहीं ........... सन्त ज्ञानेश्वरजी |
रूह ही नूर नहीं , नूर ही अल्लाहताला नहीं ..........सन्त ज्ञानेश्वरजी |
स्वाध्याय - अध्यात्म ही ज्ञान नहीं | ज्ञान " तत्त्वज्ञान " है |
दीन्हीं ज्ञान हर लीन्ही माया | सच्चे भगवदवतारी की पहचान है ||
गुरु करो दस - पांचा | जब तक मिले न सांचा ||
जीव को मोक्ष , जीवन को यश - कीर्ति | परमेश्वर वालों के पीछे रहती है फ़िरती - फ़िरती ||
पूर्ति - कीर्ति - मुक्ति परमेश्वर वालों के पीछे रहती है फ़िरती - फ़िरती |
भक्त- सेवक भगवान का यात्री परमधाम का |
गृहस्थ का जीवन मौत की प्रतीक्षा | भगवद भक्त - सेवक का जीवन परमधाम की यात्रा ||
ईमान - सच्चाई - संयम - सेवा , यही है सबसे सुन्दर मेवा | अपनाना हो अपना लो भाई , भगवन रहेंगे सदा सहाई | नहीं जानोगे नहीं समझोगे , जग में होगी तेरी हंसाई ||
पानी पियो छान कर | गुरु करो जानकर ||
झूठा गुरु अजगर भया , लख चौरासी जाय | चेला सब चींटी भये नोची - नोंची के खांय ||
शरीर - जीव - ईश्वर - परमेश्वर यथार्थत: ये चार हैं | चारों को दिखलाने और मुक्ति - अमरता देने हेतु भगवान सदानन्द लिये अवतार हैं |
आडम्बर - ढोंग - पाखण्ड मिटावें | अपने को सत्पुरुष बनावें || "धर्मं - धर्मात्मा - धरती "की रक्षा में जुड़कर अपने मानव जीवन को सफल बनावें ||
जिद - हठ छोड़ो , झूठे गुरु से तुरन्त नाता तोड़ो | मुक्ति - अमरता परमप्रभु से तुरन्त नाता जोड़ो |
ॐ-सो हँ- हँ सो- शिव ज्योति भी भगवान नहीं , भगवान " परमतत्त्वम " है | स्वाध्याय, अध्यात्म , ही ज्ञान नहीं , ज्ञान " तत्त्वज्ञान " है |
‘अन्तेन सहितः सः सन्तः ।’
कण -- कण में भगवान् -- यह घोर है अज्ञान | सबमें है भगवान् -- मूर्खतापूर्ण है यह ज्ञान |